महेश सिंह की कवितायेँ

सूखा पेड़ और नन्ही चिड़िया 

सूखे पेड़ की डाल पर बैठी
नन्ही सी प्यारी चिड़िया
खोज रही है बस एक फुनगी
कि घोसले को फिर से छांव मिलेगा
लोकतंत्र के हरेभरे पेड़ों को छोड़कर
उसने चुना है वह सूखा पेड़
जिसकी जड़ें परम्परा का रस पीकर
सालोसाल जिन्दा रखते थे छांव
बरबस ही चले आते प्रवासी पक्षी
अध्यात्म साधना में लीन होने
डोलियों से उतरती थीं नववधुयें
आशीष के लिये
कहांर मिटाते थे अपनी थकान
सत्तू भी खाते थे इसी के छांव में
नन्ही चिड़िया ने सुना था अपनी मां से
दुनिया भर के पेड़ों का गुरु था यह पेड़
बिना भेदभाव के इसने सबको पनाह दिया
आर्यों से लेकर अंग्रेजों तक
पर
सबने छला इसको
पत्ते-पत्ते को तोड़कर ठूठ बना डाला
और जाने कौन सा रसायन डाला
सबने मिलकर इसकी जड़ों में कि
सूखता ही चला गया यह भारीभरकम पेड़
आज भी निरन्तर जारी है उसका छला जाना
नन्ही चिड़िया दहशत में है
उसके सूखी डालियों पर चलते
टाँगियों की आवाज सुनकर
फिर भी
उसे पूरा भरोसा है उसकी क्षमता पर
बस भरोसा नही है तो
इस लोकतांत्रिक पर्यावरण स्नेह पर .



झुलसे पेड़ों पर लटके बंन्दर और पक्षी 

धरती का सीना चीर कर
बनी लोहे की पटरियां
और धड़धड़ाती भागती ट्रेन
जंगल से गुजर रही है ।
नीला आसमान जैसे समन्दर
गर्म हवा जैसे सुनामी की लहर
और सूरज आग का गोला
जंगल जिसमें झूलस रहा है
और चीख रही हैं आत्माएं
जो आश्रित हैं जंगल पर।
झुलसे पेड़ों पर लटके बंन्दर
और कुछ पक्षी टकटकी लगाए
देख रहे हैं कि बादल कब लौटेगें ?


एक बदबूदार आदमी 

मैं बदबूदार आदमी हूँ
सच है !
और उतना सच है
जितना की तुम्हारा धर्मं
मेरा बदबूदार जिस्म
मेरे लिए रक्षा कवच है
ज्योंही मैं हटाऊंगा इसे
तुम्हारे सभ्य पंजे नोच लेंगे
मेरा गोस्त.

मैं जानता हूँ तुम्हारी सभ्यता में
चिकने गोस्त की कीमत बहुत है
और सरेआम नंगा कर
नोचने की परंपरा भी
अभी कल ही की तो बात है
क्या तुमने नहीं निकाला था ?
दो औरतों के जिस्म का कतरा-कतरा
भूल गए.!
तब तो यह भी भूल गए होगे
कि इसी परम्परा के लिए तुमने
कुछ दिन पहले
एक गोस्त खाते हुए इन्सान का
गोस्त खा गए थे

खैर ! तुम्हारी सभ्यता में
सभ्य रहना तुम्हारा अपना मामला है
और, बदबूदार रहना हमारा अपना

हमे हमारे हाल पर छोड़ दो
छोड़ दो हमारी बदबूदार जमीन
छोड़ दो हमारी बदबूदार औरतें
हमारे बदबूदार बच्चे
हमारी बदबूदार संस्कृति

आखिर ,
तुम क्यों चाहते हो
अपनी बहियात सभ्यता
हमपर थोपना
जबकि हम अपनी असुरियत में
खुश हैं,
क्योंकि
तुम्हारी इंसानियत से कही ज्यादा
ऊँची है हमारी असुरियत ।



आंसू

उसकी आँखों में आंसू थे
खुशी के, जमीं पर आने की।
पारदर्शी झिल्ली के सहारे, खून से लतपथ
जब उसने पहला कदम रखा जमीं पर।

भेड़िया ने गर्दन पर पंजा भी मारा था ,
पर उसकी मां ने बचा लिया उसको
ना जाने क्यों ?

किलकारियां और क-ख-ग से
मामा-नाना की दूरी तय करके वह
जल्द ही खेलने लगी धूल-मिटटी के बीच,
उसकी आँखों में आसू थे खुशी के, लड़कपन के।

सागर सी गहराई और पर्वत से भी ऊँचे
यौवन का सामजस्य लिए
पंख फैलाई ही थी, आसमान में उड़ने को
पर ! पर कुतर डाले
क्षणिक सुख के आदमखोर दरिंदो ने।

विक्षिप्त, असहाय उसने चाहा इच्छा मृत्यु,
फिर ! अंतर्द्वंद में जीने का साहस कर गई,
सोचा,
सहारा मिलेगा
समाज का, अपनों का, सपनों को
दुनिया बहुत बड़ी है।
उसकी आँखों में आसू थे खुशी के उम्मीद के।

जिनके लिए कभी नन्ही परी थी,
उसने ही कर दिया नामकरण उसका,
कलमुही, कुलटा, कुलक्षनी, रांड
और भी उपमाएं, जिससे सभ्य घृणा करते हैं,

मुह माँगा धन और पगड़ी भी रखा, उसके बाप ने,
पर ! किसी भी कीमत में धुल न सका ‘दाग’।
फिर ‘दाग’ धुले बिन बंधता कैसे उसका परिणय सूत्र ?

हताश, निरास, बूझे मन से, बंद कमरे में-
कर गई वह ‘एक रासायनिक क्रिया’
केरोसिन, आग और स्वयं का।

अब भी उसकी आँखों आसू थे
खुशी के,पर ! जमीं से जाने की।  



ठग और मैं 

आवाज देता हूँ निरंतर
सो रहे अवचेतन मन को
जाग, जाग तू जाग
कोई इंतजार कर रहा है
तेरा बेसब्री से ,
हारकर, इस तरह सोना
कहां की नैतिकता है ?
मैं जानता हूँ कि इसमें
तुम्हारा कोई दोष नही
मैं यह भी जानता हूँ कि
किस तरह से तुम्हारी धार मोड़ी गयी
किस तरह से काटा गया तुम्हारी जड़ को
कितने-कितने भुलावा देते रहे तुम्हारे आका
कि - तुम मेरे हो , तुम मेरे हो, और
मै तेरा सहचर हूँ , साथी हूँ , शुभचिंतक हूँ

पर ! कहाँ गये वे सब ....?
जब तुम भूख के मारे तड़प रहे हो
माँग रहे हो बस एक बूँद, आसमान से

अरे, अरे ..! ये क्या ..? तुम रो रहे हो..?
नहीं- नहीं.., यह बुरा संकेत है
रो मत, आंसू पीकर प्यास बुझा अपनी और
देख, हजारों, लाखों, भूखे-नंगो की तरफ
क्या वे नही जी रहे..?

तुम्हे भी जीना चाहिए उन्ही की तरह

चलो उठो अब
और देखो दरवाजे पर कौन बैठा है ?
क्या वह कोई अपना है ..? या कोई और
ठीक से पहचान लेना
कहीं कोई ठग तो नही ..?

थूक 

बलुई मिट्टी की ढेर पर बैठकर
लगातार थूक रहा हूं।
कुछ पल के लिए लग रहा है
कि थूका गया है बलुई मिट्टी पर।
किंतु! बलुई मिट्टी तो बलुई मिट्टी है
हवा और धूप से जल्द ही सूख जा रही है ,
थूक की आद्रता
और मिट जा रहा है थूक का अस्तित्व।
फिर जस की तस खड़ी हो जाती है
बलुई मिट्टी की ढेर।
ठीक वैसे ही,जैसे मिटाया जाता है
अत्याचार के खिलाफ किया गया
एक छोटा सा आंदोलन।
और जस के तस पड़े रहते हैं अत्याचारी ।


जीवन की खोज 

जब तुम झूले पर बैठी थी
तब एक टक
निहारे जा रही थी
किसी अदृश्य को,
तब मैं देख रहा था
तुम्हारी आँखों में
न पलकें तुम्हारी गिर रही थीं
न पलकें मेरी
इस बीच में मैंने पाया कि
वह तुम नहीं हो
कोई बिन्दू है जो
जी रही है मरने के लिए
किसी अन्तरगुहा में
अंतर्मन की कठोरतम
श्रेणियों के बीच
भागती, चीखती, चिल्लाती
असहाय !
पर, संघर्षरत।
मानों, खोज रही हो अस्त्र
जससे मृत्यु हो सके और
वह पहुंच सके
उस अतल गहराई में
जहां जीवन हो ।

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