सरकारी अस्पताल के डाक्टरों के नाम एक खुला पत्र


आप सभी छोटे-बड़े सरकारी डाक्टर साहबों को मेरा नमस्कार..!

            उम्मीद करता हूँ आप लोग पूरी तरह से भौतिक सुख सुविधा का लाभ उठाते हुए अमन-चैन की जिन्दगी जी रहे होंगे. अगर नहीं जी पा रहे हों; तो, मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपके मरीज कंजूस होते जा रहे हैं. वैसे तो आम तौर पर मरीज कंजूस होते ही हैं. लेकिन आप लोग भी कम मझे हुए खिलाड़ी नहीं हो. मरीज चाहें जितना भी अपनी कंजूसी के लिए अपना तर्क गढ़ लें आप लोग उनकी गुदड़ी के लाल को निकलवा कर ही दम लेते हो. यदि आपके पास इस तरह का कौशल नहीं है तो आपके लिए मेरा कहना है कि आप डाक्टर नहीं हो सकते. ओह ! माफ़ी चाहूँगा आप लोगों को तो यहाँ भारत में धरती के भगवान का दर्जा दिया जाता है. तो मेरा कहना यही है कि आप भगवान नहीं हो बल्कि इन्सान हो. यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि, यह पत्र उन इंसानों के लिए तो बिलकुल भी नहीं लिख रहा हूँ. जिनमें यह कौशल नहीं है.     
खैर ! जबतक कि यह पत्र आप लोगों के पास पहुंचे और आप चौंधियाई हुई आखों से पढ़कर झट से बोल पड़ें कि “हू आर यू ?” तो डाक्टर साहब आप लोग यह वाक्य बोलें, उससे पहले ही मैं बता देना चाहता हूँ कि “मैं कौन हूँ.” दरअसल मैं आपकी ही क्लिनिक का एक मरीज हूँ. भरोसा नहीं हो रहा न ? भरोसा होगा भी नहीं, आप लोग तो हमारा टेस्ट दर टेस्ट कराने में इतने मशगुल हो कि मुझे पहचान भी नहीं सकते. हमारी पहचान तो आपके लिए बस इतनी सी है कि मैं आपका एक ‘मॉडल-ओर्गनिज्म’ हूँ. फिर भी मैं आप लोगों से अपने बारे में बता देना चाहता हूँ. तो आप मेरी पहचान के लिए सबसे पहले तो अपने क्लिनिक के ए.सी. वाले कमरे से निकलिए और अपने ही किसी वार्ड में आइये. मैं आपको पहले ही बेड पर मिल जाऊंगा. वैसे तो प्रत्येक बेड पर मैं ही हूँ, लेकिन आपसे इतनी मेहनत करवाना नहीं चाहता. आपकी आखें शायद मुझे देख ही न पाए और देखें भी तो शायद पहचान न पाए. इसलिए पहले ही बेड पर आप फोकस करें तो हम दोनों के लिए अच्छा होगा.
तो डाक्टर साहब जब आप मुझे देख चुके होंगे, पहचान चुके होंगे, तब आप शायद यह बोल पड़ें कि-“व्हाट यू वांट ?” आपके जबड़ों को तकलीफ पहुंचे उससे पहले ही मै आपको यह बता देना चाहता हूँ कि ‘मैं क्या चाहता हूँ ?’ दरअसल मुझे कुछ नहीं चाहिए. बस कुछ बातें हैं; जो मैं आपसे कहना चाहता हूँ. हालांकि मैं यह जानता हूँ आप लोग इसकी इजाजत नहीं देंगे और जल्द ही मुझे किसी और टेस्ट के लिए किसी नए टेस्टिंग मशीन के पास भेज देंगे. इसलिए आप इतना सब करें उससे पहले ही मैं यह खुला पत्र आप लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ. और इसी के माध्यम से अपनी बात कह रहा हूँ.
यह बात तो आप जानते ही होंगे कि मैं आप के पास जिला सरकारी अस्पताल में दिखाने के लिए आया था. जहाँ एक रूपये की पर्ची लगी थी. उसी पर्ची पर लिखे नाम से आपने मुझे पुकारा था. मेरी नब्ज टटोली और मुझसे थोड़ी बहुत पूछ-ताछ करके फटाफट कुछ दवाओं का नाम लिख दिया था. मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं वहां से निकलने लगा था तो आपने मुझसे यही कहा कि- “कुछ दवाएं काउंटर पर से ले लेना और बाकी पर्ची पर लिखी दवा की दूकान से...और हाँ आपने यह भी कहा था कि ठीक होना चाहते हो तो सुबह-शाम मैं अपने क्लिनिक पर देखता हूँ वहां आ जाना.” आपने अपने क्लिनिक का नामपता लिखा हुआ एक कार्ड मुझे थमा दिया था.
डाक्टर साहब मैं सच में ठीक होना चाहता था, इसीलिए तो दूसरे ही दिन आपके क्लिनिक पहुँच गया. चार सौ रूपये की पर्ची कटवाई और घंटो बैठा इन्तजार करता रहा. हालांकि, वहां सिर्फ मैं ही नहीं था, करीब-करीब पचास लोग होंगे. खांसते, कराहते, रोते-विलखते लोग. वे सभी आपका इन्तजार कर रहे थे.
मुझे याद है, आप उस दिन सरकारी अस्पताल से जल्दी नहीं आ पाए थे. जैसा कि आम तौर पर आप रोज दिन के दो या तीन बजे तक आ जाते थे. मैं आपकी मज़बूरी समझ सकता हूँ, कहीं कोई मीटिंग में फस गए होंगे या गप्पे मारने में उलझ गए होंगे. यह आपके लिए कोई नयी बात नहीं है. आप अच्छी तरह जानते हैं कि आपके मरीज आपसे वेवफाई नहीं कर सकते, वे मरते दम तक आपका इन्तजार करते रहेंगे. इसलिए आपकी देरी के लिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ.
खैर ! छोड़िये इन सब बातों को यहाँ पर इन सब बातों का कोई औचित्य नहीं. मैं अपने मुद्दे पर आता हूँ और अपनी बात शुरू करता हूँ. तो डाक्टर साहब, उस दिन आप पांच बजे तक आये. यही कोई पाजेरो टाईप की लग्जरी गाड़ी से. आपके आते ही हम सब मरीज, सम्मान में खड़े हुए और जो खड़े नहीं हो सकते थे उनकी जान में जान आयी. हालांकि आपने हम लोगों की तरफ थोड़ा भी ध्यान नहीं दिया. सरसराते हुए अपने केबिन में चले गए, नक्कासीदार सीसे से घिरा वातानुकूलित कमरा, और आरामदायक कुर्सी जिसपर आप बैठे.
बाहर हम सबकी पर्ची नंबर से लगी हुई थी. आप अपने केबिन में आराम से बैठे हुए कुछ हिसाब-किताब कर रहे थे. शायद यह देख रहे होंगे कि आज सिर्फ पचास ही मरीज क्यों ? फिर थोड़ी ही देर में आपने अपने केविन से बेल बजाया तो पहले नंबर वाला मरीज अन्दर गया. उसदिन मुझे पता चला कि आप डाक्टरी में कितने महारथी हैं. सिर्फ दो मिनट में ही उसकी छुट्टी कर दी थी आपने. और लगे हाथ उसे एक पता लिखा कार्ड भी दिया था जिसे लेकर वह उस बताये पते पर एक्सरे कराने चला गया. दूसरे, तीसरे, चौथे से लेकर अट्ठारहवें नंबर तक मैंने बड़े ही गौर से देखा कि आपने किसी का भी दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लिया. और जब वे आपके केविन से लौटे तो उन सबके हाथ में एक-एक पता लिखा कार्ड था. कोई ब्लड टेस्ट के लिए गया, कोई एक्सरे के लिए तो कोई सिटी स्कैन के लिए.
मुझे यह पक्का भरोसा हो गया था कि आपने अपने किसी परिचित के पास ही उन लोगों को भेजा था. कितना ख्याल रखते हैं न आप अपने मरीजों का. कहीं ऐरे-गैरे के पास अपने मरीजों को कैसे भेज सकते हैं भला ?. कोई भी सरकारी डाक्टर अपने प्राइवेट मरीजों को किसी ऐरे-गैरे के पास नहीं भेज सकता.
दूसरे का तो मैं पूरा वाकिया नहीं बता सकता लेकिन हम सब मरीजों की हालत लगभग एक जैसी ही है इसलिए सभी मरीजों की संवेदनाओं का एहसाह करते हुए मैं अपने आपको उनका प्रतिनिधि समझ रहा हूँ. बहरहाल, जब मेरा उन्नीसवां नंबर आया तो आपके बेल बजाते ही मैं आपके केविन में गया. मुझे याद है, जाते ही मैंने अपना शिष्टाचार निभाते हुए आपको अपना नमस्कार दागा था. जिसपर आपने कोई ध्यान नहीं दिया था. और बड़े ही प्रोफेशनल ढंग से मुझसे पूछा कि “बोलो क्या परेशानी है ?” मैंने बताया कि-“खांसी हुई है ...कई जगह दिखाया पर ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही है.”  इसपर आपने मुझे एक इनहेलर दिया, जिसका मुझे देने से पहले मुझसे सौ रूपये आपने जमा करा लिया. फिर बोले कि-“दम लगाकर खींचो” मैंने भी दम लगाया और खींच लिया. गले में कुछ ठण्डा-ठण्डा सा लगा. फिर आपने वह इनहेलर मुझसे ले लिया और मुझे भी एक कार्ड थमाते हुए बोले कि-“इस पते पर जाओ और अपने बलगम की जाँच कराओ.” मैंने पूछा था-“कितना खर्च लगेगा ?” तो आपने बताया कि-“यही कोई पांच सात सौ रूपये लगेंगे.”
मैं चिंता में पड़ गया था कि घर से तो बस एक हजार लेकर आया था, चार सौ लग गए फीस के, सौ इनहेलर के और पांच सौ बलगम चेक कराने के, अगर यह चेककराई कहीं सात सौ की हुई तो उसमे ही दो सौ कम पड़ेंगे. फिर दवा कैसे लूँगा ?
अभी मैं सोच ही रहा था कि आपने कड़क आवाज में बोला-“चलो अब जाओ...जांच कराने के बाद, यह एक सप्ताह की दवा लिख दिया हूँ  काउंटर से ले लेना.”
“डाक्टर साहब दवा कितने की पड़ेगी ?” मेरा वाक्य पूरा ही हुआ था कि आप ऐसे बोल पड़े जैसे आप जान रहे थे कि मैं यही पूछने वाला हूँ.-“जाओ, काउंटर पर पूछ लेना...वैसे यह दवा पंद्रह सौ से नीचे की ही होगी.”
“डाक्टर साहब मैं ठीक तो हो जाऊँगा न”-शायद आपने इस प्रश्न की उम्मीद न की होगी इसलिए आपने जल्दीबाजी कहा था-“अगले सप्ताह जांच कराकर आओगे, तब बताऊंगा कि ठीक होगे की नहीं.”
इससे आगे न तो मुझे कुछ आपसे पूछने की हिम्मत हुई और न ही कुछ कहने की. इस तरह उस दिन मैं जैसे-तैसे करके अपने बलगम की जांच कराई और दवा लिया. आपके बताये अनुशार एक सप्ताह तक नियमित दवा लेते रहा. हालांकि इसका मेरी खांसी पर कोई असर नहीं हुआ. और रात-दिन उसी तरह खांसते रहा जिसतरह आपसे मिलने के पहले खांसता था.
अगले हप्ते जब मैं आपके क्लिनिक गया तो आपकी कुशलता पर मुझे पक्का यकीन हो गया क्योंकि उस दिन भी आपने किसी का दो मिनट से ज्यादा का समय नहीं लिया. मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि समय का मनेजमेंट कोई आपसे सीखे. जहाँ तक मेरी बात है तो उसदिन जबकि मेरे बलगम की रोपोर्ट आ गयी थी. आपने उसे देखा और कहा कि-“तुम्हे तो कोई परेशानी नहीं है एक काम करो एक जांच और करा लो तब मैं देखकर बताऊंगा कि क्या करना है...तबतक यह एक सप्ताह दवा और दे देता हूँ... काउंटर से ले लेना.” इस बार मैं पूरी तरह मैं समझ गया था कि मुझे क्या करना है. इसलिए आगे आपसे कोई सवाल नहीं किया.
तो डाक्टर साहब मैं आपको बताते चलूं कि आप लगभग दस सप्ताह तक मेरा इलाज करते रहे, जांच के लिए भेजते रहे, अगले सप्ताह की दवा देते रहे. मैं जांच कराते रहा, नियमित दावा लेते रहा और खांसी जस की तस बनी रही. मैं अपने अनुभव से बता सकता हूँ कि मेरी खांसी पहले सूखी-सूखी सी आती थी. लेकिन जबसे आपकी दवा ले रहा हूँ उसमे कुछ गीलापन आ गया है. बस बलगम बाहर नहीं निकालता, गले में ही चटर-पटर किये रहता है.
आगे बात ग्यारहवें हप्ते की है. जब आपके पास कोई और जांच नहीं बचा तब आपने मुझे बड़े ही प्यार से समझाते हुए कहा था कि-“अस्पताल में एडमिट करना पड़ेगा. तब जाकर तुम्हारी खांसी ठीक हो पाएगी.” डाक्टर साहब क्या बताऊँ आपसे, आपकी यह बात सुनकर मैं बड़ा ही पेशोपेस में पड़ गया था. मेरे सामने अब कोई रास्ता नहीं बचा था. दो महीने से मैं कहीं भी काम करने नहीं जा पाया था. सोचा था कि कर्जा लेकर पहले इलाज करवा लेता हूँ फिर जब मैं ठीक हो जाऊँगा तो सबके कर्जे उतार दूंगा. लेकिन अब मैं क्या करूँ ? अब मैं किससे उधार मांगू ? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. अंत में मैंने यह निर्णय लिया कि पत्नी के गहने बेच देता हूँ और अस्पताल में एडमिट हो जाता हूँ. जी है तो जहान है...गहने फिर बन जायेंगे. आखिर जब डाक्टर साहब कह रहे हैं तो सही ही कह रहे होंगे. मैं इस इलाज को किसी भी कीमत में नहीं छोड़ सकता.
इस तरह डक्टर साहब मैंने आपकी बात मान ली और आपके अस्पताल में एडमिट हो गया पत्नी के गहने बेचकर. मुझे यहाँ आपकी क्लिनिक में भर्ती हुए कोई दस दिन हुए होंगे. जिस वार्ड में मुझे आपलोगों रखा था. वही मेरे बगल में एक युवक और था. अ..अ...हाँ मुझे याद आ गया उसका नाम सुबोध था. जिसको मरे हुए दो दिन हो चुके थे फिर भी आप उसका इलाज करते रहे. तरह-तरह के जाँच का कागज उसके परिवार वालों को थमाते रहे. और उनसे उन जाचों की कीमत लेते रहे.
आखिरकार जब आपको लगा कि अब इससे ज्यादा कमाई नहीं किया जा सकता तब आपने सुबोध के परिवार वालों को बड़ी ही सहानुभूति के साथ कहा कि-“माफ़ करिए हमने अपनी तरफ से भरपूर कोशिश किया, लेकिन हम उसे बचाने असफल रहे.” रोते-बिलखते, सुबोध के परिवार वालों को मैंने देखा. मैंने देखा उसकी माँ को देखा, किस तरह पछाड़े खा-खाकर गिर रही थी...रो-रो के बुरा हाल था उस बेचारी माँ का... और आपलोग कागजों को दुरुस्त करने में मशगुल रहे.
उस दिन से डाक्टर साहब मैं आप से डरने लगा था. खासकर उस दिन से और जब आपने मुझसे कहा था कि मेरे फेफड़े का आपरेशन करना पड़ेगा. मेरे सामने सुबोध का चेहरा बार-बार आ जा रहा है. वह चेहरा जब वह मुस्कुराते हुए मुझसे बोला था कि “डाक्टर साहब कह रहे थे कि जल्द ही मैं ठीक हो जाऊँगा...भईया ! जब मैं ठीक होकर घर चला जाऊंगा. तो आपकी मुझे बहुत याद आएगी. आप चिंता मत करियेगा...आप भी जल्दी ही ठीक हो जायेंगे...तब मैं आपके घर आऊंगा. आप मेरी भाभी मुझे मिलवायेंगे न ? मैंने उसकी हाँ में हाँ मिलाते मुस्कुरा भर दिया था. ठीक यही चेहरा डाक्टर साहब...यही चेहरा “आप मेरी भाभी से मुझे मिलवायेंगे न ?” वह बार-बार मुझसे पूछने आ जाता है. जानते है डाक्टर साहब मैं अब उसकी हाँ में हाँ नहीं मिला पाता और ना ही मुस्कुरा पाता हूँ. मुझे बहुत रोना आता है...कभी-कभी तो रो भी लेता हूँ. क्या करू ? अब आपके टेस्टों और जाचों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रही. सच बताऊँ तो अब मैं ठीक होना ही नहीं चाहता. मेरी खांसी से अब मुझे दिल्लगी हो गयी है.     
अत: डाक्टर साहब मेरी आपसे विनती है कि मुझे यहाँ से जाने दें. मैं नहीं चाहता कि मेरा भी हाल सुबोध जैसा हो, और उसकी माँ की तरह मेरी पत्नी भी पछाड़ें खा-खाकर गिरे. मुझे आपसे कोई शिकवा-शिकायत नही. बस आप यहाँ से मुझे जाने दे आपका सदा आभारी रहूँगा.

आपका एक प्रिय मरीज   


महेश सिंह, शोधार्थी, हिंदी विभाग, पांडिचेरी यूनिवर्सिटी पांडिचेरी 605014                            

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