‘चौथा खम्भा प्राइवेट लिमिटेड’ (पुस्तक समीक्षा)

लोकतंत्र का चौथा खम्भायानि कि मीडिया अब प्राइवेट लिमिटेड कंपनी हो चला है। मीडिया को जातिवाद, साम्प्रदायिकता, घोर पूंजीवाद, कुलीन हितैषी और जन विरोधी दीमकों ने खंडहर में तब्दील कर दिया है। दिलीप मंडल द्वारा लिखी गयी पुस्तक चौथा खम्भा प्राइवेट लिमिटेडमीडिया के इसी स्वरुप की पड़ताल करती है। पुस्तक को घटनाओं और मुद्दों के आधार पर विभिन्न अध्यायों में बाँटा गया है। दिलीप मंडल विभिन्न समाचारपत्र-पत्रिकाओं, टेलीविज़न चैनलों और कई अन्य मीडिया समूहों से सांस्थानिक एवं अनौपचारिक तौर पर जुड़े रहे हैं। पत्रकारीय लेखन के साथ-साथ उन्होंने भारतीय जन संचार संस्थान में प्रशिक्षण का कार्य भी किया है। सम्प्रति जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से मीडिया की सामाजिक संरचना विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं। मीडिया का अंडरवर्ल्ड’, ‘कार्पोरेट मीडिया: दलाल स्ट्रीटऔर जातिवार जनगणना: संसद, समाज और मीडियाउनके द्वारा लिखी गयी प्रमुख पुस्तकें हैं। भारतेंदु पुरस्कार और राजा राममोहन राय राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त कर चुके दिलीप मंडल जी ने चौथा खम्भा प्राइवेट लिमिटेडपुस्तक में भारत की मुख्यधारा की मीडिया के विचलन और विसंगति की मीमांसा का प्रस्तुतीकरण किया है।

विचारों की विविधता बनाये रखने, समाज के सभी समूहों को मीडिया में उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने और लोककल्याणकारी भूमिका निभाने के लिये मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता रहा है परन्तु मीडिया में हो रहे बदलाव इसके भिन्न रूप को दर्शातें हैं। मीडिया अब लोककल्याणकारी भूमिका निभाने के बजाय कार्पोरेट के हितों का प्रतिनिधित्व करता है और इसीलिए दिलीप मंडल जी मीडिया को चौथा खम्भा प्राइवेट लिमिटेड कहते हैं। चौथा खम्भा इसलिए कि मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आज़ादी की दुहाई देता है और कंपनी इसलिए क्योंकि यह शुद्ध मुनाफ़े की दौड़ में शामिल हो गया है। दिलीप मंडल जी कहते हैं-

भारत में उदारीकरण के साथ मीडिया के कार्पोरेट बनने की प्रक्रिया तेज़ हो गई और अब यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। ट्रस्ट संचालित द ट्रिब्यूनके अलावा देश का हर मीडिया समूह कार्पोरेट नियंत्रण में है (पृष्ठ 65)

दिलीप मंडल भारतीय मीडिया में आये बदलाओं को समझाने के लिये नोम चोमस्की और एडवर्ड एस हरमन द्वारा प्रतिपादित प्रोपेगंडा मॉडल का इस्तेमाल करते हैं। चोमस्की और हरमन कहते हैं कि मीडिया का जन विरोधी होना कोई षड्यंत्र नहीं हैं बल्कि यह उसकी संरचनात्मक विवशता है। स्वामित्व के स्वरुप, आमदनी का तरीका और ख़बरों का स्रोत मीडिया को पूंजीवाद के हित मे खड़ा कर देता है। दिलीप मंडल प्रोपेगंडा मॉडल को भारतीय सन्दर्भ में विस्तारित करते हुए कहते हैं कि मीडिया देश-काल की सामाजिक संरचना (भारत के सन्दर्भ में जातिवाद) को भी प्रतिबिंबित करता है। मीडिया का मालिकाना स्वरुप और न्यूज़रूम में दलितों, आदिवासियों, सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों और धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यक समूहों की ग़ैर-नुमाइंदगी और/या अल्प प्रतिनिधत्व मीडिया को जन विरोधी बनता है। जातिगत पूर्वाग्रह, जातीय भेदभाव और धार्मिक विद्वेष की भावना मीडिया पाठों (मीडिया टेक्स्ट) में भी परिलक्षित होती है। दिलीप मंडल जी कहते हैं-

भारतीय मीडिया में दलितों, आदिवासियों, पिछड़े और पसमांदा अल्पसंख्यकों की लगभग अनुपस्थिति है। इनकी आवाज़ और इनके मुद्दे भी मीडिया मे नहीं आते (पृष्ठ 142)

भारतीय मीडिया की विसंगति, विचलन, जातिगत संरचना, पूर्वाग्रह, पूंजीवादी स्वरुप आदि को पुस्तक में विभिन्न उदाहरणों से समझाया गया है। जातिगत जनगणना के विरोध में लगभग सभी मीडिया समूहों का एकमत होना, आरक्षण विरोधी आंदोलन का पुरज़ोर समर्थन, दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों के आंदोलनों की अनदेखी, मीरा कुमार द्वारा जातिगत जनगणना पर दिए गए बयान को एनडीटीवी द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश किया जाना, सैंडल के मामले में मायावती पर वार आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो मीडिया की सामाजिक बनावट और उसके जातीय पूर्वाग्रह को प्रतिबिंबित करते हैं। न्यूज़रूम में खास जातियों और वर्गों के आधिपत्य पर सवाल उठाते हुए मंडल जी कहते हैं-

क्या मीडिया इस देश के ज़्यादातर लोगों की आवाज़ बनने में असमर्थ है और ऐसा मीडिया की आर्थिक संरचना की वजह से है या फिर न्यूज़रूम में अगर दलित, आदिवासी और पिछड़े पत्रकारों की संख्या आबादी में उनकी संख्या के समानुपात में होती तो भी क्या मीडिया इसी तरह से व्यवहार करता” (पृष्ठ 98)?
लोकतंत्र को जीवंत बनाये रखने के लिये ज़रूरी है कि पब्लिक स्फीयर (जुरगेन हैबरमास) को मुक्त और सतत गतिशील बनाये रखा जाए और लोगों को समाचार सामग्री, विचार व मनोरंजन विविध एवं प्रतियोगी स्रोतों से प्राप्त हो (बेन बैगडिकीयान)। भारत में लगभग अस्सी हज़ार से भी ज़्यादा समाचार पत्र-पत्रिकाएं और 600 से ज़्यादा टेलीविज़न चैनल हैं। सूचना के विविध मंचों के आधिक्य से भ्रमित हुआ जा सकता है कि भारत में सूचना का लोकतंत्र है लेकिन यह कदापि सही नहीं है। हजारों की संख्या में मीडिया संस्थान होने का बावजूद भी भारतीय मीडिया बाज़ार में केवल कुछ मीडिया घरानों का वर्चस्व है। किसी भी क्षेत्र में दो-तीन समाचार पत्रों का पाठकों की अस्सी-नब्बे प्रतिशत आबादी पर कब्ज़ा है। मीडिया का संकेन्द्रण लोकतान्त्रिक विमर्श को बाधित करता है। मंडल जी बताते हैं कि-

पिछले 20 साल भारत में मीडिया के तेज़ विकास के ही नहीं बल्कि मीडिया संकेन्द्रण यानी कंसेन्ट्रेशन के साल रहे हैं। इन वर्षों में कुछ मीडिया समूह बहुत बड़े हो गए हैं। ये देश की बड़ी कंपनियों में शामिल हैं” (पृष्ठ 110)।

मीडिया को लेकर जो हमें एक पवित्रता का बोध होता था अब वह पुराने ज़माने की बात हो गयी है। नीरा राडिया और अमर सिंह टेप कांड से मीडिया का कच्चा चिठ्ठा खुल गया। लोगों को पता चल गया कि किस तरह मीडिया, राजनीति, व्यवसाय, उद्योग और दलालों का गठजोड़ लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों के रिश्तों को पुनर्परिभाषित कर रह है। जहाँ मीडिया एक ओर गरीबों के आंदोलनों का विरोध करता है वहीँ दूसरी ओर अन्ना हजारे के आन्दोलन पर मीडिया अति प्यार बरसाया। ध्यान रहे कि अन्ना का आन्दोलन कार्पोरेट के ख़िलाफ नहीं था और दूसरे वह शहरी हिन्दू पुरुष भद्रजनों का आन्दोलन था और इसीलिए मीडिया उसको अपना आन्दोलन मान रह था। जो मीडिया राष्ट्रमंडल खेलों की आलोचना करते नहीं थकता था वही मीडिया बम्पर विज्ञापन मिलने पर अथक गुणगान में तल्लीन हो गया। खुद की बारी आने पर दूसरों का भंडाफोड़ करनेवाला मीडिया दुम दबाकर बैठ जाता है।

जहाँ एक ओर मंडल जी मुख्यधारा की मीडिया से निराश हैं वहीँ दूसरी ओर न्यू मीडिया (सोशल नेटवर्किंग साईट, विकिलीक्स इत्यादि) से उन्हें काफ़ी उम्मीदें हैं। सीमाओं के बावजूद भी न्यू मीडिया की वहनीयता, पहुँच, ताकत और लोकतान्त्रिक संरचना से वह काफ़ी आशान्वित हैं। सामाजिक और आर्थिक रूप से सीमांत समूहों द्वारा नया मीडिया का इस्तेमाल संगठित होने, जागृत करने और व्यापक आन्दोलन खड़ा करने में किया जा सकता है। हैदराबाद विश्वविद्यालय (रोहित वेमुला) और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (कन्हैया कुमार और राष्ट्रवाद की बहस) के तत्कालीन घटनाक्रमों और उत्तरवर्ती अभियानों में फेसबुक जैसे न्यू मीडिया माध्यमों के इस्तेमाल से नया मीडिया के सन्दर्भ में मंडल जी की मान्यता सिद्ध प्रतीत होती है। वह कहते हैं कि-

इन्टरनेट और साइबर दुनिया में विचारों और सूचनाओं के मुक्त प्रवाह की गुंजाइश बाकी जनसंचार माध्यमों से ज़्यादा है...इन्टरनेट की इन्ही खूबियों की वजह से सरकारें अक्सर इन्टरनेट को नियंत्रित करना चाहती हैं (पृष्ठ 90)।

दिलीप मंडल जी भारतीय मीडिया के अति पूंजीवादी व जन विरोधी स्वरुप को समझाने के लिये न केवल विभिन्न मुद्दों का उदाहरण पेश करते हैं अपितु विभिन्न रिपोर्टों फिक्की-केपीएमजी, अफैक्स, गूगल ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट, विकिलीक्स के केबल, इंडियन रीडरशिप सर्वे, कोम्स्कोर की रिपोर्ट इत्यादि -  का भी सहारा लेते हैं। इसके अलावा अपनी बात को मजबूती प्रदान करने के लिये सम्बंधित मीडिया पाठों को भी उद्दृत करते हैं। ख़बरों के शीर्षकों का प्रस्तुतीकरण करके वह मीडिया में मौजूद जातिगत विभेद को समझाने के लिये उपयोगी उपकरण पाठकों को प्रदान करते हैं। अपनी बात को एक बृहत् परिप्रेक्ष्य में स्थापित करने हेतु दिलीप मंडल जी भारतीय और देश-विदेश के तमाम विशेषज्ञों और मीडियाकर्मियों के कार्यों का भी ज़िक्र करते हैं। दिलीप मंडल जी अपने केंद्रीय विचार- मीडिया अब कार्पोरेट हो चुका है और उसका जन विरोधी होना उसकी संरचनात्मक मजबूरी और ख़ासियत है को स्थापित, विकसित और सिद्ध करने में सफल रहे हैं।

चौथा खम्भा प्राइवेट लिमिटेडपुस्तक को और भी समृद्ध किया जा सकता था। पुस्तक में कुछ अध्यायों और मुद्दों को अत्यन्त संक्षेप में लिखा गया है। इसके अलावा कई मुद्दे जैसे अन्ना आन्दोलन, नीरा राडिया कांड, राष्ट्रमंडल खेल आदि का कई बार दुहराव हुआ है जिसे और व्यवस्थित ढंग से एक सूत्र में पिरोया जा सकता था। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि दिलीप मंडल जी भारतीय मीडिया और भारतीय समाज के अन्तर्सम्बन्धों और मीडिया के कारपोरेटीकरण, जातिवादी और पूंजीवादी चरित्र को उजागर करने में कामयाब रहे हैं।

अंततः यही कहा जा सकता है कि इक्कीसवीं शताब्दी में आ रहे मूल्यों में बदलाओं, लोकतंत्र और मीडिया के  संबंधों की पुनर्संरचना, सामाजिक संरचना की मीडिया में प्रतिबिम्बिता, मीडिया का घनघोर पूंजीवादी होना और गलाकाट प्रतिस्पर्धा में शामिल होना, उसका जातिवादी होना, भाषाई व धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ होना आदि मुद्दों को समझने के लिये दिलीप मंडल जी द्वारा लिखित पुस्तक चौथा खम्भा प्राइवेट लिमिटेडमीडियाकर्मियों, पाठकों, शोधार्थियों और आमजनों के लिये अत्यंत उपयोगी है।

लेखक :दिलीप मंडल,
राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली (2016 प्रथम संस्करण)
ISBN 978-81-267-2829-9
मूल्य: 150 रूपये
पृष्ठ: 152


समीक्षक :
अनूप कुमार, शोधार्थी
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं मास कम्युनिकेशन विभाग
पांडिचेरी विश्वविद्यालय
पुद्दुचेरी- 605 014
Email: anoop.bhumasscomm@gmail.com

हिन्दुस्तानी से हिंग्लिश होती हिंदी सिनेमा की भाषा

भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक परंपरा वाले देश में सिनेमा अपनी व्यापक पहुँच के कारण लोगों के लोकरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम बना हुआ है. आज भारत में लगभग बाईस से अधिक भाषाओं में फ़िल्में बनायीं जाती हैं जिनमें एक चौथाई फ़िल्में हिंदी की होती हैं. हिंदी फिल्मों के दर्शकों की संख्या भी लगभग इसी अनुपात में है. यह संख्या सिर्फ हिंदी-उर्दू क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है बल्कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी सिनेमा के दर्शक काफी संख्या में मिल जायेंगे. जब हम हिंदी सिनेमा की बात करते हैं तो हमारे सामने वह सिनेमा होता है जिसके पात्र हिंदी में संवाद तो कर रहे होते हैं. लेकिन जरुरी नहीं कि वे पात्र हिंदी भाषी ही हों और यह भी जरुरी नहीं कि कहानी, फिल्म-निर्माता, निर्देशक, पठकथा लेखक, अभिनेता-अभिनेत्री, संगीतकार आदि भी हिंदी भाषी हों. अगर हम किसी भी दौर के महत्वपूर्ण हिंदी फिल्मों की बात करें तो चाहे वे लोकप्रिय सिनेमा के अंतर्गत आती हों चाहें कलात्मक सिनेमा के अंतर्गत, उनमें से अधिकतर के फ़िल्मकार हिंदी भाषी नहीं हैं, यहाँ तक कि हिंदी सिनेमा के ज्यादातर फिल्मकार और कलाकार उर्दू पृष्ठभूमि से आये हुए हैं.  हिंदी सिनेमा में हिंदी भाषियों का यदि किसी एक क्षेत्र में बाहुल्य है तो वह है संवाद और गीत लेखन. इसमें भी हिंदी के वही लेखक फिल्मों में कामयाब हुए जो फिल्मों की भाषाई परम्परा को अपनाकर अपनी पहचान बनायीं. इस प्रकार हिंदी सिनेमा की भाषा उस बोलचाल की भाषा के निकट है जिसे हिन्दुस्तानी जुबान का नाम दिया गया था, यह हिंदी भी है और उर्दू भी. आज इसी तरह हिंदी सिनेमा में एक नयी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है, जिसमे इंग्लिश ने उर्दू की जगह को अधिगृहित कर लिया है. इस नयी भाषा को हिंगलिश भाषा का नाम दिए जाने की सुगबुगाहट भाषा वैज्ञानिको के बीच में सुनाई दे रही है. चूँकि सिनेमा की भाषा सदा से ही अपने समयकाल, व्यावसायिकता, कथानक और पात्रों के अनुकूल ही गढ़ी जाती रही है. इसलिए हिंदी सिनेमा ने अपने जरुरत के अनुसार न सिर्फ हिंदी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों की शब्दों को बल्कि अन्य भाषायी क्षेत्रों की बोलियों के शब्दों को भी अपनाने में कोई कोताही नहीं की.


अपने इस शोध-पत्र में मैंने हिंदी सिनेमा के इतिहास से भाषाई दृष्टि से प्रमुख अपने-अपने समकालीन तीन प्रतिनिधि फिल्मों को शामिल किया है. पहली फिल्म प्यासा है, जिसका निर्माण गुरुदत्त ने किया है. इस फिल्म की भाषा उर्दू मिली हुई हिंदी है.  जिसे हिन्दुस्तानी भाषा का नाम दिया गया था. दूसरी फिल्म है ‘आनंद’ जिसका निर्माण ऋषिकेश बनर्जी ने किया है. इस फिल्म में हमें ‘उर्दू’ लगभग गायब होती हुई नजर आती है और इसकी गीतों और संवादों में हिंदी का पुट देखने को मिलता है. जो खड़ीबोली के काफी नजदीक है. तीसरी प्रतिनिधि फिल्म के रूप में हमने ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’ का चयन किया है. इस फिल्म के निर्माता यस चोपड़ा है और निर्देशन किया है आदित्य चोपड़ा ने. इस फिल्म में हमें एक दूसरी ही तरह की भाषा का परिचय होता है. जिसमें हिंदी का साथ अंग्रेजी को देते हुए देखा जा सकता है. इस अंग्रेजी मिली हुई हिंदी को ही हिंग्लिश कहा जा रहा है.    
इस शोध-पत्र में मैंने तीन प्रतिनिधि फिल्मों ‘प्यासा’ 1957, ‘आनंद’ 1971 और ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’ 1995 के माध्यम से हिंदी सिनेमा की शुरूआती भाषा रही हिन्दुस्तानी से आज की हिंदी सिनेमा में तेजी से प्रचलित हिंग्लिश तक की यात्रा का विश्लेषण करते हुए इस भाषाई बदलाव के कारणों का पता लगाने का प्रयास किया है. चूँकि सिनेमा के सामाजिक सरोकार तो हैं ही लेकिन सिनेमा एक व्यासाय भी है इसलिए इस शोध पत्र में सिनेमा के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्ष को देखने का हमारा प्रयास है.
हिंदी सिनेमा बनाम हिन्दुस्तानी सिनेमा

हिंदी सिनेमा शुरू से ही भाषायी संकीर्णता से दूर रहा है. इसलिए अपने शुरुआती समय में जब इसने पौराणिक विषय को चुना तो इसकी भाषा भी उसी के अनुरूप रही. हालांकि 1931 से पहले बनने वाली सभी फिल्मे मूक थीं, लेकिन आर्देशर ईरानी ने जब पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनायीं तो उसकी भाषा भी कथानक के अनुरूप थी. शुरूआती दौर की लगभग सभी फ़िल्में पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक विषयों पर ही बनती रहीं. यहाँ यह बताते चलें की हिंदी सिनेमा पर पारसी थियेटर का सीधा प्रभाव था. यह वही थियेटर है जिसके पौराणिक पात्र भी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग धडल्ले से करते थे अर्थात उर्दू मिली-जुली हिंदी, चूँकि पारसी थियेटर के नाटक, समाज के किसी भी हिस्से की भावनाओं को आहात किये बिना उनका मनोरंजन करते थे. उनके नाटकों में धार्मिक और पौराणिक विषय होते हुए भी एक सामाजिक सौहार्द्र का माहौल रहता था. इसका कारण उनका व्यासायिक दृष्टीकोण था. उन्होने हमेशा यह ध्यान रखा की ब्रिटिश सरकार की कोपभाजन का शिकार न होना पड़े, इसलिए पारसी थियेटर ने अपने विषय-वस्तु का दायरा समेट लिया. अतः उनके नाटकों की भाषा भी उसी के अनुरूप बनी रही. इस प्रकार हिंदी सिनेमा पर भी पारसी थियेटर का भाषायी संस्कार बना रहा. इस संदर्भ में जवरी मल्ल पारख के वक्तव्य का जिक्र किया जा सकता है- “पारसी थियेटर ने हिंदी-उर्दू विवाद से परे रहते हुए बोलचाल की एक ऐसी भाषा की परम्परा स्थापित की जो हिंदी और उर्दू की संकीर्णताओं से परे थी और जिसे हिन्दुस्तानी के नाम से जाना गया. यह भारतीय उप-महाद्वीप के एक बड़े हिस्से में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई थी. हिंदी सिनेमा ने आरम्भ से ही भाषा के इसी रूप को अपनाया. इस भाषा ने ही हिंदी सिनेमा को गैर हिंदी भाषी दर्शकों के बीच में भी लोकप्रिय बनाया.यह द्रष्टव्य है कि भाषा का यह आदर्श उस दौर में न हिंदी वालों ने अपनाया न उर्दू वालों ने. साहित्य की दुनिया में इसे प्रेमचंद ने ही न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि इस भाषा का रचनात्मक और कलात्मक परिष्कार भी किया. बाद में साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन ने भाषा के इस आदर्श को अपना वैचारिक समर्थन भी दिया और उसका विकास भी किया. लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना जरुरी है कि हिंदी-उर्दू  सिनेमा का भाषायी आदर्श इसी पारसी थियेटर की परम्परा का विस्तार था और इसी वजह से जिसे आज हिंदी सिनेमा के नाम से जाना जाता है उसे दरअसल हिन्दुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना चाहिए.”(समयांतर, जुलाई-2012)         
            इस प्रकार हिंदी सिनेमा को इस भाषायी रूप से हिन्दुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना सर्वोपयुक्त होगा. लेकिन राजनैतिक और सिनेमा के व्यवसायिक कारणों से, खासकर इसे आजादी के बाद से हिंदी सिनेमा का नाम दिया जाने लगा. आज भी जबकि हिंदी सिनेमा में अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ा है और उर्दू काफी हद तक ख़तम हो चुका है. तब भी हम पाएंगे कि उसके संवादों में, गीतों में उर्दू शब्दों का मिठास बरकरार है.

शुरूआती हिंदी फिल्मों की भाषा   
  
पहली बोलती ‘फिल्म आलम’ आरा के साथ ही फिल्मों में ध्वनि देने का प्रचलन शुरू हुआ. तब से लेकर आज तक निरंतर संवादों और गीतों पर निरंतर प्रयोग होता चला आ रहा है. या सीधे- सीधे कहें तो हिंदी सिनेमा की भाषा पर प्रयोग होता चला आ रहा है. हमने इस शोध-पत्र में शुरूआती दौर की फिल्मों की भाषा के अध्ययन के लिए प्रतिनिधि फिल्म के रूप में  गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ का चयन किया है. इसके चयन का एक कारण यह है कि यह फिल्म एक हिन्दू और हिंदी भाषी परिवार के पृष्ठभूमि पर आधारित है. एक-दो मुस्लिम पात्र भी हैं लेकिन वे मुख्य पात्रों के रूप में नहीं हैं. एक कारण और है कि इस फिल्म को टाइम पत्रिका ने 2005 में दुनिया की सौ सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में रखा था और अभी पिछले वर्ष वेलेंटाइन डे के अवसर पर इसे दस रोमांटिक फिल्मों की सूची में रखा है. इस प्रकार यह फिल्म तत्कालीन समय की प्रतिनिधि फिल्म कही जा सकती है.
            खैर ! हम फिल्मों की भाषा पर बात कर रहे थे. तो शुरूआती दौर की फिल्मों की भाषा पारसी थियेटर के प्रभाव के कारण हिन्दुस्तानी थी. यह एक सतही कारण कहा जा सकता है. मूल कारणों की तरफ देखेंगे तो पाएंगे कि पारसी थियेटर की तरह ही हिंदी सिनेमा की भी मज़बूरी व्यासायिकता ही रही. आजादी के पहले यह देश हिन्दू-मुसलमानों का देश था. और हिन्दू-मुसल्मा दोनों की बोलचाल की भाषा हिन्दुस्तानी थी. यह इस बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देवकीनंदन खत्री का प्रसिद्द उपन्यास चंद्रकांता पढने के लिए अधिकतर लोगों ने हिंदी सिखना शुरू किया. इसका मतलब यह हैं कि हिंदुस्तान के अधिकतर लोग हिंदी नहीं जानते थे और जो जानते भी थे वे हिंदी-उर्दू और फारसी के मिलेजुले स्वरुप का ही अनुसरण कर रहे थे. और सबसे बड़ी बात यह है कि उस समय सिनेमा देखता कौन था ? जाहिर है कि वही नगरों का पढ़ा-लिखा वर्ग. जिन्हें उर्दू-फारसी का संस्कार प्राप्त था. इस लिए सिनेमा की यह मज़बूरी थी कि वह एक ऐसी भाषा को प्रयोग में लाये जिसे वह पढ़ा-लिखा वर्ग तो देखे ही साथ ही अनपढ़ जनता भी आकर्षित हो सके. शुरूआती दौर की हिंदी फिल्मों की भाषा हिन्दुस्तानी बनी रहने का एक कारण और रहा कि कहानी और पटकथा लेखक तथा गीतकार अधिकतर मुसलमान थे. नसरीन मुन्नी कबीर की किताब में ‘टाकिंग फिल्म्स: कन्वर्सेशन ऑन हिंदी सिनेमा विद जावेद अख्तर’ में दिए एक साक्षत्कार में जावेद अख्तर कहते हैं- भारत की बोलती फिल्मों ने अपना बुनियादी ढांचा उर्दू फारसी थियेटर से हाशिल किया. इसलिए बोलती फिल्मों की शुरुआत उर्दू से हुई. यहाँ तक कि कलकत्ता का नया थियेटर भी उर्दू के लेखको का इस्तेमाल करता था. बात यह है कि उत्तर भारत के शहरी इलाके में उर्दू बटवारे से पहले बोलचाल की जुबान थी और इसे ज्यादतर लोग समझते थे और यह पहले की तरह आज भी बड़ी नफ़ीस जबान है जिसके भीतर हर तरह के जज्बात और ड्रामे की तजुर्मानी की सलाहियत है”           
इस प्रकार तक़रीबन सत्तर के दशक तक की अधिकतर फिल्मों की भाषा हिन्दुस्तानी ही बनी रही. चाहे वह हुमायूँ (1945) अनमोल घड़ी (1946) अनोखी अदा (1948) झाँसी की रानी (1952) देवदास (1955) अमानत (1955), प्यासा (1957) मधुमती (1958), सुजाता(1960), बंदिनी (1963) हो या दो दूनी चार(1968) हो. 
जहाँ तक प्यासा फिल्म की बात है तो हम पाएंगे की फ़िल्म के संवाद और गीतों में इसी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग है. इसकी एक बानगी इस संवाद में देखा जा सकता है. यह दृश्य उस समय का है जब फिल्म का नायक विजय सभागार में पहुंचता है तो, देखता है कि पूरा सभागार खचाखच भरा हुआ है और उसकी मौत को अपने फायदे का धंधा बनाने वाला प्रकाशक माइक पर कह रहा है – दोस्तों, आपको पता है कि हम आज यहाँ ‘शायर-ए-आजम’ विजय मरहूम की बरसी में इकठ्ठा हुए हैं. पिछले साल आज के दिन ही वह मनहूस घड़ी आयी थी. जिसने इस दुनिया से इतना बड़ा शायर छीन लिया. अगर हो सकता तो मैं अपनी सारी दौलत लुटाकर, खुद मिटकर भी विजय को बचा लेता लेकिन ऐसा हो न सका. काश ! आज वह जिन्दा होते तो देख लेते कि जिस दुनिया ने उन्हें भूखा मारा, वही दुनिया उन्हें हीरों और जवाहरातों में तौलना चाहती है जिस दुनियां में वह गुमनाम रहे वही दुनिया उन्हें दिलों के तख़्त पर बिठाना चाहती है, उन्हें शोहरत का ताज पहनाना चाहती है. उन्हें गरीबी और मुफलिसी की गलियों से निकालकर महलों में राज कराना चाहती हैं. (प्यासा-1957)   
     इसी प्रकार इस फिल्म के एक प्रसिद्द गीत में भी इसी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रभाव देखने को मिलता है यथा – 
हर इक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उल्फत, दिलों में उदासी
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी
ये दुनियां अगर मिल भी जाये तो क्या है ?
ये दुनियां अगर मिल भी जाये तो क्या है !

इन संवादों और गीतों से स्थिति काफी साफ़ हो जाती है कि लगभग सत्तर के दशक तक की फिल्मों की भाषा आम बोलचाल की बनी रही जिसे हिन्दुस्तानी के नाम से जाना जाता था.

जब हिंदी की तरफ झुका हिंदी सिनेमा

आजादी के बाद की परिस्थितियां काफी अलग हो गयीं थीं. देश दो भागों में विभाजित हो चुका था और भाषा धार्मिक होने लगी थी. हिन्दुओं का देश हिंदुस्तान हो गया और मुस्लिमों का पाकिस्तान. इसको लेकर काफी कत्लेयाम भी मचा. लेकिन गाँधी जैसे लोगों की वजह से हिंदुस्तान में एक सहूलियत हुई कि जो मुसलमान हिंदुस्तान में रहना चाहता है वह रह सकता है. इसलिए सिनेमा जैसे जगहों पर मुसलमानों का जो प्रभाव रहा उनके न जाने के वजह से बचा रहा. क्योंकि हिंदी सिनेमा जैसे व्यासाय में मुसलमानों का काफी पैसा लगा था. एक तरह से कई लोगों की रोटी का सवाल बना रहा. इसलिए मुसलमान, जो बम्बइया सिनेमा में ही अपना भविष्य देख रहे थे वे उसे छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए. कुछ गए भी तो हालात के स्थिर होने के बाद वापस लौट आये. इनमे शायर, गीतकार, कहानीकार, संवाद लेखक, अभिनेता, अभिनेत्री निर्माता और निर्देशक भी थे. जैसे दिलीप कुमार, अबरार अल्वी, वहीदा रहमान, कादर खान इत्यादि.
इस कारण से लगभग हिंदी सिनेमा की भाषा आजादी के बाद भी हिन्दुस्तानी बनी रही. लेकिन समय बड़ा बलवान होता है जिस सिनेमाई दुनिया को हिन्दू समाज निम्न कोटि का मानता था उसी में काफी तेजी से रोजगार और शोहरत के लिए जाने की होड़ लग गयी. अतः हिंदी सिनेमा में साठ-सत्तर के दशक से हिन्दुओं का रुझान हिंदी सिनेमा की तरफ बढ़ा. यहाँ मेरे कहने का मतलब यह कतई न समझा जाये कि हिंदी सिनेमा में पहले हिन्दू वर्ग बिलकुल नहीं था, लेकिन जो थे; उन लोगों को इस समाज में सम्मान की दृष्टी से नहीं देखा जाता था. तो हिन्दुओं के हिंदी सिनेमा में आने की वजह से सिनेमा की हिन्दुस्तानी भाषा से उर्दू को दूर करने का प्रयास जाने-अनजाने में ही होने लगा. कभी- कभी यह यह सोचा-समझा हुआ भी लगता है. क्योंकि यह सभी जानते हैं कि सिनेमा एक व्यासाय है इसलिए सिनेमा कभी भी भाषायी संकीर्णता को आत्मसात नहीं करता, लेकिन जब उसके दर्शकों की संख्या भाषा के आधार पर ही निर्धारित हो रही हो तो उसकी मज़बूरी हो जाती है कि वह सिनेमा की भाषा भी उन्ही के अनुरूप रखने का प्रयास करे.
इस प्रकार हम पाएंगे की सत्तर के दशक से लेकर नब्बे के दशक तक की लगभग सभी फ़िल्में अपना रुझान हिंदी की तरफ करने का प्रयास करती हैं. यह गौर करने वाली बात है, कि इसी समय में धार्मिक, और पौराणिक धारावाहिकों (रामायण, महाभारत, कृष्णा) के अलावा हरिदर्शन, भक्त-प्रह्लाद और जय संतोषी माँ जैसी फ़िल्में बड़ी उत्साह के साथ बनीं. यह एक ऐसा समय था कि ऐसी धार्मिक फ़िल्में न सिर्फ बनीं बल्कि प्रसिद्द भी हुईं और अच्छा व्यापार भी किया. इसप्रकार इस समय में हिन्दी-सिनेमा के भीतर एक लंबी कड़ी हिन्दू-धर्मकथाओं पर आधारित फिल्मों की रही और उनकी संवाद-भाषा को संस्कृत की तरफ झुकाने का प्रयास भी फिल्मकारों द्वारा किया गया. इसके लिए ज्यादा उदाहरण ना देते हुए जिस दशक में फिल्म शोले (1975) बनी थी, उसी दशक की दो फिल्मों हरिदर्शन(1972) और जय़ संतोषी मां(1975) को याद कर लेना काफी होगा. फिल्म हरिदर्शन में लक्ष्मी विष्णु के वाराह रुप धारण करने पर अचरज में पड़े नारद से कहती हैं- “  प्रभु तो जैसा कारण हो वैसा ही रुप लेकर पापियों के पास जाते हैं. आप उनके प्रिय प्रतिनिधि होकर भी ये नहीं जान पाये?’’ और जय संतोषी मां’ फिल्म की तो शुरुआती पंक्ति ही है- संतोषी मां की महिमा अपार है. हर भक्त ने उनकी महिमा का गुणगान अपने अपने ढंग से किया है. इस चित्र की कथा भी कुछ धार्मिक पुस्तकों और लोककथाओं के आधार पर है. आशा हैआप इसे सच्ची भावना से स्वीकार करेंगे.
चूँकि ये धार्मिक फ़िल्में हैं इसलिए सिनेमा की भी मज़बूरी है कि उसकी भाषा भी उसी के अनुरूप रहे. लेकिन इन बीस बर्षों में बनी फिल्मों को देखा जाय तो यह साफ़ नजर आता है कि अधिकतर फिल्मों की संवाद-भाषा को उस हिंदी की तरफ झुकाने का प्रयास किया गया है जो हिन्दुस्तानी थी. यहाँ हम हिंदी-उर्दू के शब्दों का औसत देखें तो पाते हैं कि सत्तर के दशक के पहले की भाषा में पचास-पचास प्रतिशत के औसत से हिंदी-उर्दू  के शब्द हैं, लेकिन यही औसत सत्तर के बाद काफी बदल गया है, जो लगभग अस्सी और बीस के औसत का है.
इस अध्ययन के लिए हमने जो दूसरी फिल्म ली है वही ऋषिकेश मुखर्जी की कालजयी फिल्म ‘आनंद’ जिसमे संवाद लिखा है गुलजार, डी.एन. मुखर्जी, विमल दत्त और स्वयं ऋषिकेश मुखर्जी ने.  
इस बीच के सामाजिक और राजनैतिक कारणों का अध्ययन करने पर अनायास ही मेरी दृष्टी एक तरफ दौड़ती है वह है इसी समय काल में जनता पार्टी की सरकार का बनना और स्वयं सेवक संघ की स्थिति मजबूत होना. यह कारण सिनेमाई भाषा के बदलाव के लिए किस हद तक जिम्मेदार है ? यह एक अलग शोध का विषय है. लेकिन इसका जिक्र करना लाजमी सा लगा. इसके अलावा एक बात और थी. जब देश से मुसलमान ही चले गए तो देश उनकी भाषा को लेकर क्या करेगा ? जो बचे भी, वो हिंदी को ही अपना दिल दे बैठे. इस प्रकार धीरे-धीरे एक नए प्रकार के दर्शक का जन्म हुआ. जो हिंदी अधिक कायदे से समझ सकता था. इसलिए हिंदी सिनेमा की भाषा भी इसी बोलचाल की भाषा को आत्मसात करने लगी.
मसलन आप यहाँ ‘आनंद’ फिल्म के संवाद को देख सकते हैं यथा – “ हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ बंधी है, कब, कौन, कैसे उठेगा, ये कोई नहीं जनता”
इसके अलावा – “क्या फर्क है सत्तर साल और छह महीने में. मौत तो एक पल है बाबू मोसाय. आने वाले छह महीनो में जो लाखो पल मैं जीने वाला हूँ उसका क्या होगा बाबू मोसाय. जिन्दगी बड़ी होनी चाहिए लम्बी नही. हद कर दी, मौत के डर से अगर जीना छोड़ दिया, तो मौत किसे कहते हैं. बाबू मोसाय जबतक जिन्दा हूँ तबतक मरा नहीं, जब मर गया साला, मैं ही नहीं तो फिर डर किस बात का.
इन संवादों में स्पष्टतया देखा जा सकता है कि लगभग नब्बे प्रतिशत हिंदी के शब्दों का प्रयोग किया गया है.

हिंग्लिश होती हिंदी सिनेमा की भाषा

आज जबकि भूमंडलीकरण का दौर चल रहा है जिसको प्रचारित और प्रसारित करने का जिम्मा भाषाई रूप से अंग्रेजी पर है, या यूँ कहे तो; भूमंडलीकरण का भाषायी ब्रम्हास्त्र अंग्रेजी है. ऐसे में सिनेमा की भाषा कहाँ स्थिर रहने वाली, क्योंकि सिनेमा में सामाजिक सरोकार होते हुए भी व्यावसायिकता उसके मूल में है. इस लिए हिंदी सिनेमा आज अपनी जरुरत और मज़बूरी के तहत हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी आत्मसात करने में लगा हुआ है.
दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे 1995 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म हैजो डीडीएलजे के नाम से भी प्रसिद्ध है. इसका पहला प्रदर्शन 19 अक्टूबर 1995 को हुआ और 20 अक्टूबर 1995 को यह पूरे भारत में एक साथप्रदर्शित हुई. इस फिल्म का निर्देशन प्रसिद्ध फिल्म निर्माता और निर्देशक यश चोपड़ा के पुत्र आदित्य चोपड़ा ने किया. शाहरुख खानकाजोल और अमरीश पुरी इसके प्रमुख कलाकारों में थे. इस फिल्म के नाम सबसे ज्यादा चलने का रिकॉर्ड है. यह मुंबई के मराठा मंदिर में तेरह सालों से भी ज्यादा समय तक चली. मार्च 2009 में इसने मुंबई के मराठा मंदिर में 700 सप्ताहों तक चलने का रिकॉर्ड बनाया इससे पहले यह रिकॉर्ड शोले के नाम था जो करीब साढ़े पांच सालों तक एक ही सिनेमाघर में चली.

चूँकि इस फ़िल्म में अंग्रेजी के संवाद उतने नहीं मिलते, लेकिन जितने मिलते हैं उसे भाषाई रूप के बदलते स्वरूप का आगाज कहा जा सकता है. आगे इस फिल्म के कुछ संवाद प्रस्तुत हैं जो हिंदी सिनेमा की भाषा के बदलने (हिन्दुस्तानी से हिंग्लिश) की सूचना देती है. यथा-
1.       “यू नो मेक लॉन्ग हॉलीडे”
2.       “या तो कोई बस पकड़ लें या कोई कार हायर कर ले”
3.       “नाउ प्लीज! मेरा पीछा मत करो”
4.       “हाउ डे यू टच मी ... तुमने मुझे छुआ कैसे ? व्हाट द ब्लडी हेल यू”
5.       “ये तो मानना पड़ेगा की तुम्हारी च्वाइस का जबाब नहीं”
6.       “लिसिन टू मी सिमरन...लिसिन टू मी” 
7.       “मैं सच कह रहा हूँ कल रात कुछ भी नहीं हुआ था.. बिलीव मी”
8.       “अरे जरा ये खोल देंगे...”... आफकोर्स !”
9.       “अच्छा-खासा कमरा मिल रहा था...लेकिन तुम्हे मेरे साथ इस तबेले में रात गुजारना मंजूर है लेकिन उस कमरे में नहीं....ओह गॉड...आई...आई हिट गर्ल्स...”
10.   अब कल साम को बर्न से ट्रेन मिलेगी...कल सुबह आठ बजे की पहली बस पकड़ेंगे...मैंने सब पता कर लिया है... यू डोंट वरी ऐट ऑल...अब इसके बाद कोई गड़बड़ नहीं हो सकती ...नथिंग..!
ये सभी संवाद फिल्म के अलग-अलग दृश्यों के हैं. जो यह साबित करने के लिए प्रयाप्त हैं कि हिंदी सिनेमा की भाषा में कैसे अंग्रेजी अपनी जगह बनाने का प्रयास कर रही है.
अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग ऐसा नहीं है कि इससे पहले बनने वाली फिल्मों में नहीं हुआ है. घायल (1991) लम्हे (1992) जो जीता वही सिकन्दर (1993) हम हैं राही प्यार के (1994) हम आपके हैं कौन (1995) जैसी कई ऐसी फ़िल्में हैं जिसमें अंग्रेजी का बीजवपन शुरू हो गया था. लेकिन दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1996)  की भाषा के हिंग्लिश स्वरूप का शुरुआत माना जाना इसलिए जरूरी हो जाता है. कि इस फिल्म ने भारतीय दर्शकों के दिलों पर कई वर्षों तक राज किया और आज भी हिंदी सिनेमा के दर्शक इस फिल्म को उसी उत्सुकता और उत्साह से देखने में कतई परहेज नहीं करते. जाहिर सी बात है कि कला, साहित्य और सिनेमा एक ऐसा क्षेत्र है जो कभी-कभी व्यावसायिकता, प्रसिद्धि और पुरस्कार से भी एक विशेष प्रचलन और दौर की शुरुआत हो जाती है. यह प्रचलन भाषायी, तकनिकी, शैली या आन्दोलन जैसी किसी भी रूप में हो सकती है. इस रूप में हम ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ को भाषा की दृष्टि से हिंदी फिल्मों में हिंग्लिश के प्रचलन की शुरुआत करने वाली फिल्म के रूप में देखते है.               
इस फिल्म के आने के बाद इससे पहले की जो प्रसिद्ध फ़िल्में हैं और इसके बाद की जो प्रसिद्द फ़िल्में हैं उनका भाषायी रूप अध्ययन करने पर यह स्पष्ट तौर पर सामने आता है कि इस फिल्म ने सिनेमा की भाषा(संवाद) में अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाई है. क्योंकि इसके बाद आने वाली जितनी भी प्रसिद्द फिल्मे हैं उसमें हिंदी के साथ प्रयोग किये जा रहे उर्दू और फारसी शब्दों का जो बचा-खुचा स्थान था अंग्रेजी ने हथिया लिया है.   
राजा हिन्दुस्तानी (1997) दिल तो पागल है (1998) कुछ कुछ होता है (1999) हम दिल दे चुके सनम (2000) कहो ना प्यार है (2001) लगान (2002) देवदास (2003) कोई मिल गया (2004) वीर-ज़ारा (2005) ब्लैक (2006) रंग दे बसंती (2007) तारे ज़मीन पर (2008) जोधा अकबर (2009) थ्री इडीयट्स (2010) दबंग (2011) ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा (2012) बर्फी! (2013) भाग मिल्खा भाग (2014) क्वीन (‌2015) के आलावा 2016 और 2017 में प्रदर्शित होने वाली हिंदी फ़िल्में, भाषाई तौर पर हिंदी की फ़िल्में नहीं रह गयी हैं.

निष्कर्ष     
सिनेमा और समाज दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. इसलिए दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. सिनेमा की मज़बूरी है कि वह दर्शक की रूचि का ख्याल रखे. भाषाई रूप से किया गया सिनेमा के इतिहास का यह विभाजन और इस समय काल में बनीं फिल्मे इस बात की प्रत्यक्ष गवाह हैं. दर्शकों की रूचि सामाजिक परिस्थितियों के फलस्वरूप बदलती रहती है. कभी-कभी सिनेमा भी उनकी रूचि के बदलाव का कारण बनता है. उदाहरण स्वरूप ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ और ‘ग्रैंड मस्ती’जैसी फिल्मों ने अपना एक अलग दर्शक वर्ग तैयार किया है. कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों का एक दूसरे के प्रति गहरा रिश्ता है. यही सारी बातें सिनेमा की भाषा पर भी लागू होती है. अतः हम देख सकते हैं कि प्रत्येक समय में सिनेमा की भाषा का स्वरूप बदलता गया है.
आज के भूमंडलीय समय में एक अलग तरह की परिस्थिति का जन्म हुआ है. इससे हिंदी सिनेमा का दर्शक वर्ग पहले वाला नहीं रह गया है. आज हिंदी सिनेमा केवल भारतीय दर्शकों के लिए नहीं बन रहा है बल्कि प्रवासी भारतियों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है. यह वह दर्शक वर्ग है जो जैसे-तैसे हिंदी समझ भर लेता है अतः हिंदी सिनेमा की भाषा का हिंग्लिश होना स्वभाविक सा जान पड़ता है.

         
संपर्क:
महेश सिंह, शोधार्थी, हिंदी विभाग, पांडिचेरी यूनिवर्सिटी, पांडिचेरी- 605014

मोब.  7598643258, gguhindi@gmail.com

निराला: आत्महन्ता आस्था और दूधनाथ सिंह


कवि-कथाकार और आलोचकीय प्रतिभा को अपने व्यक्तित्व में समोये दूधनाथ सिंह एक संवेदनशील, बौद्धिक, सजगता सम्पन्न दृष्टि रखने वाले शीर्षस्थ समकालीन आलोचक हैं। आपके अध्ययन-विश्लेषण का दायरा व्यापक और विस्तीर्ण है। निराला साहित्य के व्यक्तित्व के विविध पक्षों और उनकी रचनात्मकता के सघन अनुभव क्षणों  का गहरा समीक्षात्मक विश्लेषण आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘निराला: आत्महन्ता आस्था’’ (1972) में किया है।
            दूधनाथ सिंह जी सर्वप्रथम पुस्तक के शीर्षक की सार्थकता को विवेचित करते हुए लिखते हैं कि कला और रचना के प्रति एकान्त समर्पण और गहरी निष्ठा रखने वाला रचनाकार बाहरी दुनिया से बेखबर ‘‘घनी-सुनहली अयालों वाला एक सिंह होता है, जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है। अपनी सिंहवृत्ति के कारण वह कभी भी इस खून का स्वाद नहीं भूलता और हर वक्त शिकार की ताक में सजग रहता है- चारों ओर से अपनी नजरें समेटे, एकाग्रचित्त, आत्ममुख, एकाकी और कोलाहलपूर्ण शान्ति में जूझने और झपटने को तैयार।...... इस तरह यह एकान्त-समर्पण एक प्रकार का आत्मभोज होता है: कला-रचना के प्रति यह अनन्त आस्था एक प्रकार के आत्म-हनन का पर्याय होती है, जिससे किसी मौलिक रचनाकार की मुक्ति नहीं है। जो जितना ही अपने को खाता जाता है- बाहर उतना ही रचता जाता है। लेकिन दुनियावी तौर पर वह धीरे-धीरे विनष्ट समाप्त, तिरोहित तो होता ही चलता चलता है। महान और मौलिक सर्जना के लिए यह आत्मबलि शायद अनिवार्य है।’’
            अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के संदर्भ में यह सिंहवृत्ति (अथवा सिंह बिम्ब) सभी कवियों के लिए जरूरी है, सभी इस प्रक्रिया से गुजरे हों ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन निराला के संदर्भ में, उनकी रचनात्मकता में यह (सिंहवृत्ति) सदैव सक्रिय रही है स्वयं उनकी पंक्तियों में- जनता के हृदय जिया / जीवन-विष विषम पिया’, धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध / धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध।और यही कारण है कि उनके जीवन में व्याप्त विषमताएँ, दुख-दर्द, अन्तस्ताप उनकी काव्य की रचनात्मकता की शक्ति बनता गया।
            दूधनाथ सिंह जी की स्पष्ट मान्यता है कि छायावादी कवियों में निराला ही एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनका जीवन, कृतित्व तत्कालीन भारतीय सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थितियों से एकदम साम्य स्थापित करता चलता है। और यही कारण है कि उनके काव्य और व्यक्तित्व का अध्ययन अनुशीलन तत्कालीन भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की गाथा का अनुशीलन प्रतीत होता है। दूधनाथ सिंह के शब्दों में- ‘‘अपने युग के प्रमुख कवियों में निराला ही ऐसे कवि हैं जिनके निजी जीवन और तत्कालीन भारतीय स्थितियों के बीच घहराता हुआ संघात कभी भी बन्द नहीं हुआ है।’’1
            निराला की रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण के उपक्रम में दूधनाथ सिंह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विशेषता  की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि उनकी रचना प्रक्रिया या रचनाओं को कालक्रम के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि  एक ही काल में वे परस्पर भिन्न-भिन्न भावबोध एवं विचारबोध से परिचालित रचनाएँ रचते चलते हैं। इसलिए उनकी रचनाओं का कालक्रम आधारित विश्लेषण सर्वथा गलत निष्कर्षों की ओर ले जायेगा। उनके शब्दों में- ‘‘निराला का काव्य व्यक्तित्व इतना विराट, गहन, गंभीर और कुछ ऐसा सीमाहीन लगता है, जिसके अन्दर बाहरी विचार और सिद्धान्त और अध्ययन रेखाएँ तिरोहित हो जाती हैं और फिर जो  कुछ भी रचकर बाहर आता है, वह सिर्फ निराला होते हैं। सामयिकता उनके व्यक्तित्व में घुलकर एक निजी और मौलिक रूप धारण करती है। रचना प्रक्रिया के ये कई-कई आवर्त लगातार हर समय उनके काव्य-व्यक्तित्व को अन्दोलित करते रहते हैं और अनेक रंगों, ध्वनियों और अर्थों से भरी अनेक छवियों वाली कविताएँ लगातार वे रचते चलते हैं। कालक्रम के आधार पर एक ही समय के आस-पास रची गयी भिन्न-भिन्न ढंग की इन कविताओं  में कोई तारतम्य और संगति बिठाना विचित्र लगता है।’’2



            अर्थों, रंगों और ध्वनियों के अनेक आवर्तों को अपने में संजोने वाली निराला की कविताएँ हिन्दी साहित्य की अपनी विशेष उपलब्धि रही हैं। एक ही प्रवृत्ति की श्रेष्ठतम निष्पत्तियाँ प्रायः किसी कवि की एक ऐसी विशेषता होती है जो उसे अन्य कवियों से पृथक् करती है लेकिन निराला की मौलिकता और प्रसिद्धि का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है कि वे एक साथ कई प्रवृत्तियों , कई वैशिष्ठियों  से समन्वित विविध भावों वाली श्रेष्ठ और लोकप्रिय कविताओं के प्रणेता रहे हैं। उनकी इसी प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए दूधनाथ सिंह जी लिखते हैं- ‘‘संसार की किसी भी भाषा में ऐसे कवि बहुत कम होंगे, जो रचना के अनेक रूपों को साथ-साथ वहन कर सकें और लगातार अनेक मुखी अर्थों वाली कविताएँ रचने में समर्थ हैं । इसका प्रमुख कारण यही था कि निराला ने जीवन को एक ही साथ अनेक स्तरों पर जिया। शायद जीवन और काव्य-रचना में एक ही साथ संघर्ष और संघात के इतने सारे फ्रण्ट खोलने, लगातार लड़ते रहने और रचते रहने की मानसिक और शारीरिक थकान को समझने के बाद ही उनके मानसिक असन्तुलन को समझा जा सकता है और तब यह कोई ऐसी अजूबा स्थिति नहीं लगती क्योंकि शरीर और मस्तिष्क की एक सीमा तो होती ही है और निराला ने असीम शारीरिक और मानसिक क्षमता के साथ इस सीमा का, चाहे जाने या अनजाने, लगातार उल्लंघन किया। ऐसा न करना एक तरह की मानसिक समझौता परस्ती को प्रश्रय देना था जो निराला जैसे गहन संवेदनशील, अहंकारी, उदात्त, अव्यावहारिक, भावुक और निपट मानवीय व्यक्ति के लिए असम्भव था।’’3 निराला साहित्य में एक साथ गतिमान नाना रूपात्मक अभिव्यक्तियों वाली कविताओं के साक्षात्कारकर्ता आलोचक दूधनाथ सिंह जी निराला की कविताओं को उनके निजत्व की, उनके व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति मानते हैं। रचित साहित्य और रचनाकार के व्यक्तित्व दोनों को आपस में सम्पृक्त कर उनका विश्लेषण किया है। विश्लेषण तब और भी अधिक दिलचस्प हैं जाता है जब वे निजत्व की समीपतम पहचान की अभिव्यक्तिको निराला की काव्य-रचना का केन्द्रीय भाव घोषित करते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘निराला की रचनात्मकता का श्रेष्ठ प्रतिफलन (गद्य और कविता- दोनों ही क्षेत्रों में) अपने निजत्व की समीपतम पहचान की अभिव्यक्ति में हुआ है। यह एक प्रकार का सघनतम आत्म-साक्षात्कार है- कविता या रचना को अपने निजी जीवन-बिम्ब में घुला देने का सफल प्रयास। उनकी काव्य-रचना का अधिकांश भाग इसी आत्म-साक्षात्कार अथवा निजत्व की समीपतम पहचान का परिणाम है। अपने जीवन-बिम्ब और काव्य-बिम्ब को एकमेक कर देने के कारण ही उनके काव्य में वह गहराई आ सकी है, जो धीरे-धीरे पर्त-दर-पर्त खुलती है और अपनी गरिमा, पवित्रता और भावोच्छलता से पाठक को आह्लादित करती हुई, उसके मन पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाती है। उच्छल पावनता, आत्मसमर्पण, सुख, आत्मसंतोष, गरिमामयता, अवसाद खिन्नता और जर्जरपन से होकर तिरोहित होते हुए, शरणागति की पावनतम इच्छा-यह सब कुछ निजत्व की इसी समीपतम पहचान का प्रतिफल है।’’4 यह सच है कि निराला की कविताओं  में उनके आत्मसाक्षात्कार की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है, ‘काव्य-बिम्बमें जीवन-बिम्बका एक क्षीण आभास भी झलकता रहता है लेकिन उनके काव्य को सिर्फ उनके जीवन-बिम्ब की प्रतिच्छाया मान लेने से गलत निष्कर्ष निकलने की पूरी संभावना भी आकार ग्रहण करने लगती है। जैसा कि दूधनाथ सिंह द्वारा निराला की रचनाओं के विश्लेषण में दृष्टिगोचर है। निराला के काव्य-बिम्बऔर जीवन-बिम्बको परस्पर एकमेक कर विश्लेषित करने से उनकी कविताओं के राष्ट्रीय महत्त्व का तिरोहित होना स्वाभाविक है। किसी कविता की रचनात्मकता के परीक्षण का एक मानदण्ड यह भी हुआ करता है कि वह कितना व्यक्तिगत जीवन का निषेध कर सामूहिक या सामाजिक जीवन की अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देती है, राष्ट्रीय समस्याओं का दिग्दर्शन और उनका समाधान किन-किन रूपों में प्रस्तुत करती है। रचनाकार के व्यक्तिगत जीवनानुभवों में जितना अधिक सामाजिक जीवनानुभवों का प्रामाणिक चित्रण होगा उतना ही वह रचना दीर्घजीवी एवं सम्प्रेषणीय होगी। कोई भी श्रेष्ठ रचना अपने युगजीवन के अनुभवों से विहीन होकर श्रेष्ठ या महान हो ही नहीं सकती। निराला का काव्य-बिम्ब वस्तुतः सामाजिक जीवन-बिम्ब या राष्ट्रीय जीवन-बिम्ब की चेतना से परस्पर अनुस्यूत है। निराला की कविताओं में आत्मसाक्षात्कार का दिग्दर्शन गलत नहीं, बल्कि उन्हें आत्मसाक्षात्कार का प्रतिफलन मान लेना  गलत है। दूधनाथ सिंह जी उनकी कविताओं में निहित राष्ट्रीय स्वरों की अनुगूँज को न सुन सकें हैं  ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन वे इसकी काफी क्षीण या दूरवर्ती झंकार ही सुन सके। राम की शक्तिपूजाके विश्लेषण क्रम में वे लिखते हैं- ‘‘कहीं कहीं इस कविता में राम के माध्यम से निराला की राष्ट्रीय गुलामी से मुक्ति की चिन्ता झलक मारती है। इस नये अर्थ की प्रतिष्ठा की ओर कुछ लोगों ने संकेत भी किया है। इसकी कुछ क्षीण और दूरवर्ती झंकार कविता में विद्यमान है। यद्यपि इस अर्थ को पूरी कविता में बहुत सावधानी से पिरोया नहीं गया है।’’5 यहाँ इस उदाहरण को प्रस्तुत करने का महज यह उद्देश्य है कि वे निराला की कविताओं  में राष्ट्रीय स्वर  की अनुगूँज क्षीण स्तर पर सुनते हैं और आत्मसाक्षात्कार के अंश को ज्यादा वृहत्तर स्तर पर। यह अलग बात है कि यह दूधनाथ सिंह जी ने पूरे क्रम को ठीक उलट दिया है क्योंकि  निराला के काव्य में आत्मसाक्षात्कार के स्वरों की अनुगूँज क्षीण है जबकि उसके राष्ट्रीय संदर्भों के स्वर की अनुगूँज काफी प्रशस्त है। स्वयं दूधनाथ सिंह जी भी इस बात से भली भाँति वाकिफ हैं। उनके शब्दों में- अपने युग के प्रमुख कवियों  में निराला ही ऐसे कवि हैं, जिनके निजी जीवन और तत्कालीन भारतीय स्थितियों के बीच घहराता हुआ संघात कभी भी बन्द नहीं हुआ है।’’6 दूधनाथ सिंह जी निराला के अध्ययन-विश्लेषण को कुछ मुख्य अध्यायों में विभाजित करते हैं वे निम्न हैं- सही अध्ययन दृष्टिः स्थापना’, ‘अन्तःसंगीत’, ‘लम्बी कथात्मक कविताएँ’, ‘राष्ट्रीय उद्वोधन’, ‘काव्य-आभिजात्य से मुक्ति का प्रयास’, ‘ऋतुप्रार्थनाएँ’, ‘प्रपत्तिभाव। अध्ययन के शीर्षक चाहे जो कुछ हैं लेकिन उनके विश्लेषण में, बल्कि समग्र विश्लेषण में प्रायः एक ही प्रधान स्वर की अनुगूँज सुनाई देती है। वह है- ‘‘उनका काव्य ही उनका जीवन-बिम्ब है और उनका जीवन-बिम्ब ही उनका काव्य बिम्ब।’’ यही उनके समस्त विश्लेषण का आधारवाक्य है। अपनी इसी मान्यता के चलते ही वे निराला की कविताओं में आत्मसाक्षात्कार को इतनी अधिक प्रधानता देते हैं। उनकी सामान्य कविताओं  से लेकर लम्बी कथात्मक कविताओं तक में वे प्रधानतया इसी आत्मसाक्षात्कार का साक्षात्कार करते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘निराला की रचनात्मकता का श्रेष्ठ प्रतिफलन अपने निजत्व की समीपतम पहचान की अभिव्यक्ति के रूप में हुआ है। यह एक प्रकार का सघनतम आत्मसाक्षात्कार है- कविता या रचना को अपने निजी जीवन-बिम्ब में घुला देने का सफल प्रयास। इस रूप में निराला हमारे निजी क्षणों के निजी (प्राइवेट) कवि बन जाते हैं, जिनकी अभिव्यक्तियों पर हम सुख-दुख के घने क्षणों में भरोसा कर सकते हैं। किसी भी कवि की यह श्रेष्ठतम उपलब्धि और अन्तिम सफलता कही जा सकती है। निजत्व की यह समीपतम पहचान अपने श्रेष्ठतम रूप में उनके गीतों में अभिव्यक्त हुई है......आत्मसाक्षात्कार का तिरोहित उनकी कविताओं में कहीं नहीं हुआ।........उनकी लम्बी कथात्मक कविताओं में भी उनका आत्मसाक्षात्कार या निजत्व की समीपतम पहचान ही अभिव्यक्त हुई है। राष्ट्रीय उद्वोधन की कविताओं में भी उनकी उच्छल राष्ट्रभक्ति ही व्यक्त हुई है और काव्य आभिजात्य से मुक्ति के प्रयास में लिखी गयी कविताएँ भी इस विशेषता से रहित नहीं हैं। इस तरह निजत्व की समीपतम पहचान की अभिव्यक्ति ही निराला की काव्य-रचना का वह केन्द्रीय भाव है, जिसके इर्द-गिर्द वे जीवन-भर चक्कर काटते हुए दिखाई देते हैं।’’7 वस्तुतः निराला का व्यक्तित्व और उनकी रचनात्मकता में इतना गहरा साम्य है कि पाठक या आलोचक चलता है तो निराला की कृति का आस्वादन करने लेकिन न जाने कब वह निराला के व्यक्तित्व का ही अध्ययन करने लगता है उसे इसका आभास भी नहीं होता। बड़े-बड़े आलोचक भी उनके व्यक्तित्व और रचनाशीलता के अलग-अलग विश्लेषण में सफल नहीं हो पाते और तब ऐसा ही निष्कर्ष निकलना स्वाभाविक है कि उनका काव्य-बिम्ब ही उनका जीवन-बिम्ब है और उनका जीवन-बिम्ब ही काव्य-बिम्ब।आवश्यकता तो होती है उनके जीवन बिम्ब और काव्य-बिम्ब के अलग-अलग विश्लेषण की लेकिन यह उतना आसान नहीं है।
            अब हम दूधनाथ सिंह द्वारा विश्लेषित लम्बी कविताओं (जिनमें राम की शक्तिपूजा’, ‘सरोज-स्मृति’, ‘तुलसीदासइत्यादि कविताएँ प्रमुख हैं) के उन अंशों का साक्षात्कार करते हैं जिनमें दूधनाथ सिंह की उपर्युक्त मान्यता आकार ग्रहण करती हैं और वे बड़ी ही मजबूती के साथ निराला की कविताओं  को आत्मसाक्षात्कार की कविता घोषित करते हैं। राम की शक्तिपूजा के विश्लेषण क्रम में दूधनाथ सिंह जी लिखते हैं- ‘‘......निराला की इन लम्बी कविताओं में भी आत्मसाक्षात्कार ही प्रमुख है। ये कविताएँ भी मुख्यतः आत्मचरितात्मक ही हैं। राम की शक्तिपूजाके साथ भी यही बात है। राष्ट्रीय मुक्ति के ऐतिहासिक समसामयिक अर्थ की प्रतिष्ठा से भी अधिक सघन और महत्त्वपूर्ण अर्थ राम के चरित्र के माध्यम से कवि की अपनी ही अखण्ड रचनात्मक विजय की पहचान है। यही आत्मसाक्षात्कार का संघटित अर्थ इस कविता को सर्वथा एक नये और अनछुए धरातल पर ला खड़ा करता है। ......इस अर्थ का संगुम्फन इतना सूक्ष्म है कि उसे आसानी से पकड़ना मुश्किल है। लेकिन एक बार इस प्रतीकार्थ को क्रमवार ध्यान में रखकर इस कविता को पढ़ें तो  धीरे-धीरे यह अर्थ-रस टपकने लगता है।’’8 आश्चर्य की बात तो यह है कि दूधनाथ सिंह स्वयं राम की शक्तिपूजाको उसकी व्याख्याओं के पारम्परिक और भावोच्छ्नपूर्ण व्याख्याओं, प्रशस्तियों से बचाने को कृतसंकल्प हैं, वे राम की शक्तिपूजाके यथार्थ और वास्तविक मूल्यांकन के पक्षधर हैं, वे उस कविता के अक्षत सौन्दर्य के पक्षपाती हैं तो फिर क्यों वे राम की शक्तिपूजाको सिर्फ आत्मसाक्षात्कार तक सीमित कर उसे उसके राष्ट्रीय सन्दर्भों के मूल्यवान पक्ष से जुदा कर देते हैं? निराला वैसे भी अपनी अनुभूतियों के, अपने रचनात्मक संघर्ष को सीधे-सीधे अपनी कविताओं में बड़ी प्रामाणिकता से अंकित करते ही रहे हैं तो फिर उन्हें रामकथाका आश्रय लेने की जरूरत ही क्यों होगी? निस्संदेह इस कविता का महत्त्व, उसके अर्थ का संगुम्फन आत्मसाक्षात्कार तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। इसका अपना एक राष्ट्रीय महत्त्व भी है। यह कविता परम्परा का पुनराख्यान भी नहीं है बल्कि पारम्परिक प्रतीकों में रचित युगीन संघर्ष की प्रेरणाप्रद और शक्तिमयी गाथा है, महज आत्मसाक्षात्कार की कविता नहीं। बहरहाल अभी तो दूधनाथ सिंह जी द्वारा विश्लेषित इन लम्बी कविताओं के आत्मसाक्षात्कारात्मक अंश का अवलोकन जरूरी है क्योंकि बिना उनके मूल्यांकन के सर्वांगीण पक्षों का उद्घाटन किये उनकी आलोचना-दृष्टि का सम्यक् परीक्षण नहीं किया जा सकता। वे लिखते हैं- ‘‘मुझे बराबर लगता है कि निराला ने राम के संशय, उनकी खिन्नता, उनके संघर्ष और अन्ततः उनके द्वारा शक्ति की मौलिक कल्पना और साधना तथा अन्तिम विजय में अपने ही रचनात्मक जीवन और व्यक्तिगतता के संशय, अपनी रचनाओं के निरन्तर विरोध से उत्पन्न आन्तरिक खिन्नता, फिर अपने संघर्ष, अपनी प्रतिभा के अभ्यास, अध्ययन और कल्पना ऊर्जा द्वारा एक नयी शक्ति के रूप में उपलब्ध और प्रदर्शित करके अन्ततः रचनात्मकता की विजय का घोष ही इस कविता में व्यक्त किया है। वही स्वयं पुरुष¨त्तम नवीन हैं। नये काव्य, नयी रचनात्मकता के सर्वप्रथम और श्रेष्ठतम उद्भावक वही हैं..... अपनी इसी खिन्न मनःस्थिति का सघन बिम्ब-चित्र निराला राम के रूप वर्णन में करते हैं:
अनिमेष राम-विश्वजिद्दिव्य शर-भंग-भाव
विद्धांग-बद्ध-कोदण्ड-मुष्टि खर रुधिर स्राव।
यह छवि सिर्फ राम की ही नहीं है- कवि की भी है.....उसका सारा मन क्षत-विक्षत है। मुट्ठियाँ गुस्से में कसी हुई हैं। मन का घाव रिस रहा है। अन्दर लगातार खून बह रहा है...... शुद्ध, लाल-लाल, पवित्र, मौलिक  रचनात्मक ऊर्जा का खून......जिस पर लगातार वर्षों से प्रहार होता रहा है। कवि के मन-मस्तिष्क पर ही नहीं, उसके सिंहवत शरीर पर भी प्रहार की छाप विद्यमान है......लेकिन यह अवसादग्रस्त उदास, मानसिक-शारीरिक सौन्दर्य का धुँधलापन, उसकी आच्छन्नता क्षणिक है। अभी भी कवि की तेजस्वी रचनात्मक क्षमता के नेत्र टिमक रहे हैं- उसकी दूरदर्शिता बरकरार है, जैसे अंधरे पर्वत-प्रदेश से दूर कहीं सितारे चमक रहे हैं ।’’9 ध्यान देने की आवश्यकता है कि निराला की प्रस्तुत कविता में चित्रित संघर्ष तत्कालीन राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष का है न कि यह महज निराला की उदासी, खिन्नता और संशय के भवावेग का चित्रण । आलोचक दूधनाथ सिंह ने राम की शक्तिपूजाजैसी श्रेष्ठ कविता, जिसमें स्वाधीनता-संघर्ष की चेतना सीधे-सीधे झलक मारती है, उसका ही सशक्त और ओजस्वी शब्दों में आख्यान प्रस्तुत करती है- इसका विश्लेषण निराला की खिन्न मानसिकता, उदासी और नैराश्य से करके क्या इस कविता के साथ अन्याय नहीं किया है? उसके राष्ट्रीय पक्ष, सजग युगबोध, संघर्ष-गाथा को सीमित कर उसे मात्र निराला के दुख-दैन्य और रचनात्मकता से जोड़कर उसके विस्तृत अर्थसंधान को क्षत-विक्षत नहीं किया है? उनका यह विश्लेषण विद्वतापूर्ण होते हुए भी कविता के बहु विस्तीर्ण अर्थसंधान को सीमितता प्रदान कर रहा है जो इस महत्त्वपूर्ण कविता के साथ प्रत्यक्षतः किया गया अन्याय है। प्रायः दूधनाथ सिंह जी ने अपने सम्पूर्ण विस्तृत विश्लेषण को एक ही दिशा में व्याख्यायित किया है। जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ती जाती है उन्हें आत्मसाक्षात्कार की अनुगूँज भी उतरोत्तर गहरी होती सुनाई देती है। कविता के सारे प्रतीकार्थ को वे बड़ी कुशलता से निराला के व्यक्तित्व में पिरोते चलते हैं। उसमें चित्रित राम की चिन्ता को सिर्फ निराला की चिन्ता, आशावादिता को निराला की ही आशावादिता, खिन्नता को उनकी ही खिन्नता से जोड़ते  चलते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘अपने निजत्व की समीपतम पहचान का यह प्रतीकार्थ, धीरे-धीरे इसी तरह पूरी कविता में संगुम्फित होता हुआ आगे बढ़ता है। इस खिन्नता, उदासी और क्षणिक नैराश्य के बाद फिर उसे अपनी रचनात्मक कोमल ऊर्जा का प्रथम साक्षात्कार याद आता है। कला साधना के वे शुरू के दिन। जानकी का सारा प्रसंग इसी कलात्मक संरचना के प्रारम्भिक दिनों का प्रतीकार्थ देता है। इसमें कविता कवि से गोपन संभाषण करती है, प्राकृतिक वैभव विलास और सौन्दर्य से भरपूर। उसके प्रथम अनुभव की अभिव्यक्ति के लिए कवि ने एक सम्पूर्ण वाक्य-बिम्ब की रचना की है- ज्योति: प्रपात स्वर्गीय ज्ञात छवि प्रथम स्वीय। जैसे प्रकाश स्वर्गीय झरना हो ..... कुछ इस तरह के आन्तरिक सौन्दर्य का अनुभव। कवि अपनी उस प्रथम रचना-ऊर्जा के ऊर्जस्वित सौन्दर्य की स्मृति से जैसे फिर जागता है।’’10 यहाँ स्पष्ट है कि दूधनाथ सिंह जी ने जानकी मिलन के सारे प्रसंग को निराला की रचनात्मक कोमल ऊर्जा के प्रथम साक्षात्कार से जोड़कर विश्लेषित किया है। वस्तुतः इस कविता में चित्रित जानकी प्रसंग प्रेम की कोमल भावाभिव्यंजना तथा नारी की प्रेरणामयी शक्ति तथा उसकी रचनात्मिका शक्ति का आख्यान प्रस्तुत करता है। अगर प्रतीकार्थ में हम प्रस्तुत प्रसंग को निराला के निजत्व की समीपतमपहचान के अर्थ में लें तो यह प्रसंग निराला के जीवन में प्रेमोदय, प्रेम, मिलन तथा उनकी प्रेयसी और पत्नी मनोहरा देवी के प्रथम मिलन या साक्षात्कार के अर्थ की प्रतीति कराता है न कि उनकी रचनात्मकता की। वैसे भी सन 30-35 के पूर्व ऐसी बहुत कम रचनाएँ हैं होंगी जो निराला की रचनात्मकता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कही जा सके, यद्यपि निराला की काव्य रचना में रचनात्मक उपलब्धियों की निरन्तरता सदैव विद्यमान रही। दूधनाथ सिंह जी ने प्रस्तुत कविता को प्रबन्धात्मकता के पारम्परिक ढाँचे तथा राम कथा से हटाकर विश्लेषित करने का प्रयास किया है तो भी इससे कविता के अर्थ संधान में कोई बाधा नहीं उपस्थित हुई। प्रस्तुत कविता की रचनात्मकता की अर्थवत्ता की क्षति तो तब हुई जब उसे उसके युग-जीवन के सापेक्ष विश्लेषित न कर निराला के व्यक्तिगत जीवन-संदर्भों से ही जोड़कर विश्लेषित किया। कविता को एक प्रकार की निरर्थक व्याख्या से मुक्त कराकर दूसरे प्रकार की निरर्थक व कम महत्त्वपूर्ण व्याख्या से संबद्ध कर दिया। सच है कि निराला के निजत्व की समीपतम पहचान के अंश भी कविता में दृष्टिगोचर होते हैं लेकिन प्रधानता राष्ट्रीय संदर्भों की, सजग चेतना की है। यह तो स्वाधीनता प्राप्ति हेतु संघर्षरत क्रान्तिकारियों के लिए सृजित आशाप्रद आख्यान की कविता है जैसा कि डॉ. राजेन्द्र कुमार जी ने कहा है कि यह कविता निराशा से आशा की ओर किया गया प्रमाण है।



            ‘राम की शक्तिपूजाकी तरह दूधनाथ सिंह जी तुलसीदासको भी आत्मसाक्षात्कार की ही कविता मानते हैं। उनके अनुसार तुलसीदासलम्बी कविता में तुलसी के व्यक्तित्व के माध्यम से निराला ने अपने ही रचनात्मक आयामों की चिन्ता का उद्घाटन किया है। यद्यपि दूधनाथ जी मानते हैं कि इस कविता में निराला की मुख्य चिन्ता भारत के सांस्कृतिक अन्धकार को लेकर व्यक्त की गई है लेकिन इसका अर्थ महज इतने तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि इसका अर्थ निराला के निजी जीवन में व्याप्त संघर्ष और उनके आत्मसाक्षात्कार के अंशों के साथ जुड़ता है। वे लिखते हैं- ‘‘तुलसीदास कविता में निराला द्वारा प्रतिष्ठित ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक अर्थ अधिक स्पष्ट है। उसके संकेत साफ हैं और उनकी दुहरी अर्थव्यंजना पकड़ने में कठिनाई नहीं होती। भारत के सांस्कृतिक अंधकार की चिन्ता से कविता प्रारम्भ होती है। लेकिन इस अर्थ के साथ ही निजी आत्मसाक्षात्कार का अर्थ और अधिक स्पष्टता और गहराई से निराला ने इस कविता में पिरोया है। राम की शक्तिपूजामें कवि के निजी अर्थ-सम्भार- उसकी रचनात्मकता के संघर्ष को ढूँढ़ना और मिलाना पड़ता है......राम की शक्तिपूजामें मुक्ति के प्रतीक राम, राम ही हैं निराला नहीं। निराला वे तब हैं, जब वे कवि के निजी रचनात्मक संघर्ष के आत्मसाक्षात्कार वाले प्रतीकार्थ में नियोजित होते हैं।’’11 जहाँ तक तुलसीदासऔर निराला के व्यक्तित्व का तुलनात्मक आभास वाली पंक्तियों की अर्थसंघटना से है, आत्मसाक्षात्कारात्मक अंश से है वहाँ तक ठीक है, क्योंकि राष्ट्रीय पराभव और सांस्कृतिक पराभव से तुलसीदास भी चिन्तित होते हैं, उनसे मुक्ति की राह खोजते हैं और स्वयं कवि निराला भी। वस्तुतः वह कवि है ही नहीं जो राष्ट्रीय पराभव और दुर्दशा से चिन्तित न हो, जो राष्ट्र को मुक्ति का मार्ग न दिखलाए। यहाँ समस्या तब आती है जब दूधनाथ जी तुलसीदासकविता में निराला, राम और तुलसीदास इन तीनो के व्यक्तित्व को एकमेक करके मूल्यांकित करते हैं। तुलसीदासकविता में राम प्रत्यक्षतः नहीं हैं, हाँ राम के उपासक तुलसी हैं जिनका अर्थसंधान निराला के व्यक्तित्व में किया जा सकता है लेकिन निराला के व्यक्तित्व को राम में नियोजित नहीं किया जा सकता। खासतौर पर तुलसीदासकविता में। राम की शक्तिपूजा में तो संभव है कि राम के संघर्ष को निराला के संघर्ष पर आरोपित किया जा सके लेकिन तुलसीदासकविता में राम और निराला में कोई एकतानता नहीं, कोई  साम्यता नहीं। लेकिन दूधनाथ सिंह जी ने इस कविता में तुलसीदास और राम को निराला में ही रूपान्तरित कर दिया है। उनके शब्दों में- ‘‘ ‘तुलसीदासमें तुलसीदास राम भी हैं और यह तुलसी और उनमें प्रतिरोपित राम-निराला ही हैं। यानी कि राम कथा के रचयिता तुलसीदास और राम और निराला यहाँ एक हैं जाते हैं।’’12 अपने विवेचन के इसी क्रम में दूधनाथ जी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थापना भी कर जाते हैं जब वे लिखते हैं- ‘‘तुलसीदास के माध्यम से यह जनसाधारण की दुर्दशा और सांस्कृतिक अंधकार की चिन्ता निराला के कवि की आधुनिक चिन्ता है।’’13
            वस्तुतः यह है कविता के सही संदर्भ को समझने वाली सजग आलोचकीय दृष्टि। दूधनाथ सिंह जी की यह स्थापना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कृति के वास्तविक कथ्य का उद्घाटन इन पंक्तियों  में हुआ है। यह कविता सांस्कृतिक पराभव से उत्पन्न निराशा को आशा में परिणत करने के प्रयास स्वरूप लिखी गयी है। समूचे राष्ट्र में खोये हुए गौरव की पुनः स्थापना तथा राष्ट्रीय जागरण ही इस कविता का मूल कथ्य है। इस सारी पृष्ठभूमि को जानने-समझने के बावजूद दूधनाथ सिंह जी पुनः इस कविता को निराला के व्यक्तिगत जीवन संदर्भों से जोड़कर व्याख्यायित करने लगते हैं। और तभी स्पष्ट प्रतीत होता है कि दूधनाथ सिंह जी कविता के सारे अर्थ-तन्तुओं की स्पष्ट समझ होने पर भी अपने पूर्वाग्रह को ही आरोपित करते चलते हैं। और जब हमारे पूर्वाग्रह और हमारी पूर्वधारणा ही गलत होगी तो स्वाभाविक है कि निष्कर्ष भी गलत दिशा में अग्रसर होने  लगेंगे। यही हुआ भी।
            आइए अब हम देखते हैं कि कैसे विद्वान आलोचक दूधनाथ सिंह जी अपनी समूची आलोचकीय सूझ-बूझ को दरकिनार कर अपने पूर्वाग्रह के चलते तुलसीदासकविता के अर्थविस्तार को अर्थसंकोच में परिणत कर देते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘इसीलिए मैंने कहा कि यहाँ कवि की रचनात्मक सिद्धि और उपलब्धि के अर्थ के भीतर से ही उसके सांस्कृतिक निर्माण का अर्थ भी उगता है, क्योंकि निराला जानते हैं कि उन्हीं मन्त्रपूत ओजस्वी वाणी, मौलिक वाग्मिता और गहरे अध्ययन तथा जीवन और संस्कृति की विराट समझ के भीतर से पुनः भारतीय जनता के लिए आशा-विश्वास और आस्था का नया सूर्य उगेगा-
‘‘देश काल के शर से बिंध कर
जागा यह कवि अशेष छवि धर
इसका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी
निश्चेतन, निज तन मिला विकल
छलका शत-शत कल्मष के छल
बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोंयेंगी।’’14
यह सच है कि निराला राष्ट्र की शिराओं में आशा, उत्साह, विश्वास और आस्था का संचार करना चाहते हैं लेकिन इसका प्रतीक पुरुष तुलसीदास या लोगों के मन में गहरी निष्ठा के रूप में विराजित कवि तुलसी के महान व्यक्तित्व को मानते हैं न कि स्वयं को। अगर कवि स्वयं की ही साधना की प्रशस्ति करने लगेगा तो यह कविता अहम्मन्यताऔर कवि की गवरोक्तिके सिवा कुछ नहीं होगी लेकिन यहाँ ऐसा है नहीं। यहाँ निराला तुलसीदासके माध्यम से भारतीय जनता के खोये हुए गौरवबोध को जागृत कर राष्ट्र की शिराओं में ऊर्जा की अनन्त राशि को प्रवाहित करना चाहते हैं ये अलग बात है कि कवि निराला स्वयं तुलसीदास से प्रेरणा प्राप्त करते रहे हैं, तुलसीदास के विराट व्यक्तित्व से हमेशा कुछ सीखने, रचने का संकल्प ग्रहण करते रहे हैं। यह कविता तुलसीदास के माध्यम से जागृति का संदेश देने वाली कविता है। निराला कहना चाहते हैं जब एक मध्यकालीन व्यक्ति जबकि स्थितियाँ विषम थीं, देश मुगलों द्वारा पराभूत था तब उसने प्रेम, भक्ति और ऊर्जा के अजस्र स्रोत को प्रवाहित कर दिया तो हम सब भारतीय मिलकर क्या राष्ट्र को गुलामी से मुक्ति नहीं दिला सकते? इसीलिए वे लिखते हैं-
‘‘जाग¨ जाग¨ आया प्रभात
बीती वह बीती अंध रात।’’
यहाँ दूधनाथ सिंह द्वारा निराला के निजत्व की पहचान को प्रस्तुत कविता में रेखांकित करना गलत नहीं है, गलत है उसे ही प्रमुखता प्रदान करना। कविता की विराटता, व्यापकता को सीमित करना आलोचना नहीं, आलोचना तो उसकी मूल्यवत्ता की प्रतिष्ठा, उसके अर्थसंधान को व्यापकता प्रदान करना है। आज निराला होते तो शायद गालिब की इन पंक्तियों  को गुनगुना रहे होते, दूधनाथ सिंह जी स्थापना देखकर-
खुलेगा किस तरह मजमूँ मेरे मकतूब का या रब,
कसम खायी है उस काफिर ने कागज को जलाने की।
कविता के राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संदर्भों को भली भाँति समझने के बावजूद दूधनाथ सिंह जी इसे निजत्व की समीपतम पहचान की कविता घोषित कर देते हैं-
            ‘‘निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अपनी इन लम्बी कथात्मक कविताओं का भी विषय निराला स्वयं हैं। इस तरह की कविताएँ उनके गीतों या ऋतु-कविताओं की तरह ही गहरे आत्मसाक्षात्कार की कविताएँ हैं। इन कविताओं में निराला ने दुहरे स्तर पर अपने को छुआ है उनकी पहली चिन्ता ऐतिहासिक और राष्ट्रीय उन्नयन की है, और दूसरी चिन्ता अपनी रचनात्मकता और प्रतिभा-तेजस्विता की छानबीन, पुनर्पहचान तथा प्रतिष्ठा। इन्हीं दोनों अर्थों का साक्षात्कार इन कविताओं के माध्यम से अत्यन्त सफलतापूर्वक निराला ने किया है।’’14
            यहाँ विद्वान आलोचक दूधनाथ सिंह से पूछा जा सकता है कि जब निराला ने अपनी इन लम्बी कविताओं  में ‘‘दुहरे स्तर पर अपने को छुआ है’’ तो क्या कारण है कि आप उसे अपनी विद्वतापूर्ण व्याख्या से इकहरे ही संदर्भों में विश्लेषित करते हैं। यहाँ सिर्फ इतना निवेदन है कि अगर कविता से दुहरे अर्थों की प्रतीति हैं रही हैं तो आलोचक का दायित्व है कि उसे दोनों ही संदर्भों में विश्लेषित करे। वस्तुतः रचना के वृहत्तर संदर्भों  का व्याख्यान, उसके बहुविध विस्तीर्ण अर्थ-तंतुओं का उद्घाटन ही सच्ची आलोचना है।

संदर्भ सूची :

1.         दूधनाथ सिंह-निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ.14   
2.         वही  पृ. 16
3.         वही  पृ. 16
4.         वही  पृ. 2
5.         वही  पृ. 109
6.         वही  पृ. 14
7.         वही  पृ. 26
8.         वही  पृ. 116
9.         वही  पृ. 116-117
10.       वही  पृ. 117
11.       वही  पृ. 124
12.       वही  पृ. 124
13.       वही  पृ. 124
14.       वही  पृ.  124




संपर्क : शोध-छात्र, राम चन्द्र पाण्डेय, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 08853466968

चित्र गूगल से साभार लिया गया है .

यह खेल खत्म करों कश्तियाँ बदलने का (आदिवासी विमर्श सपने संघर्ष और वर्तमान समय)

“सियाह रात नहीं लेती नाम ढ़लने का यही वो वक्त है सूरज तेरे निकलने का कहीं न सबको संमदर बहाकर ले जाए ये खेल खत्म करो कश्तियाँ बदलने...