हिन्दुस्तानी से हिंग्लिश होती हिंदी सिनेमा की भाषा

भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक परंपरा वाले देश में सिनेमा अपनी व्यापक पहुँच के कारण लोगों के लोकरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम बना हुआ है. आज भारत में लगभग बाईस से अधिक भाषाओं में फ़िल्में बनायीं जाती हैं जिनमें एक चौथाई फ़िल्में हिंदी की होती हैं. हिंदी फिल्मों के दर्शकों की संख्या भी लगभग इसी अनुपात में है. यह संख्या सिर्फ हिंदी-उर्दू क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है बल्कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी सिनेमा के दर्शक काफी संख्या में मिल जायेंगे. जब हम हिंदी सिनेमा की बात करते हैं तो हमारे सामने वह सिनेमा होता है जिसके पात्र हिंदी में संवाद तो कर रहे होते हैं. लेकिन जरुरी नहीं कि वे पात्र हिंदी भाषी ही हों और यह भी जरुरी नहीं कि कहानी, फिल्म-निर्माता, निर्देशक, पठकथा लेखक, अभिनेता-अभिनेत्री, संगीतकार आदि भी हिंदी भाषी हों. अगर हम किसी भी दौर के महत्वपूर्ण हिंदी फिल्मों की बात करें तो चाहे वे लोकप्रिय सिनेमा के अंतर्गत आती हों चाहें कलात्मक सिनेमा के अंतर्गत, उनमें से अधिकतर के फ़िल्मकार हिंदी भाषी नहीं हैं, यहाँ तक कि हिंदी सिनेमा के ज्यादातर फिल्मकार और कलाकार उर्दू पृष्ठभूमि से आये हुए हैं.  हिंदी सिनेमा में हिंदी भाषियों का यदि किसी एक क्षेत्र में बाहुल्य है तो वह है संवाद और गीत लेखन. इसमें भी हिंदी के वही लेखक फिल्मों में कामयाब हुए जो फिल्मों की भाषाई परम्परा को अपनाकर अपनी पहचान बनायीं. इस प्रकार हिंदी सिनेमा की भाषा उस बोलचाल की भाषा के निकट है जिसे हिन्दुस्तानी जुबान का नाम दिया गया था, यह हिंदी भी है और उर्दू भी. आज इसी तरह हिंदी सिनेमा में एक नयी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है, जिसमे इंग्लिश ने उर्दू की जगह को अधिगृहित कर लिया है. इस नयी भाषा को हिंगलिश भाषा का नाम दिए जाने की सुगबुगाहट भाषा वैज्ञानिको के बीच में सुनाई दे रही है. चूँकि सिनेमा की भाषा सदा से ही अपने समयकाल, व्यावसायिकता, कथानक और पात्रों के अनुकूल ही गढ़ी जाती रही है. इसलिए हिंदी सिनेमा ने अपने जरुरत के अनुसार न सिर्फ हिंदी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों की शब्दों को बल्कि अन्य भाषायी क्षेत्रों की बोलियों के शब्दों को भी अपनाने में कोई कोताही नहीं की.


अपने इस शोध-पत्र में मैंने हिंदी सिनेमा के इतिहास से भाषाई दृष्टि से प्रमुख अपने-अपने समकालीन तीन प्रतिनिधि फिल्मों को शामिल किया है. पहली फिल्म प्यासा है, जिसका निर्माण गुरुदत्त ने किया है. इस फिल्म की भाषा उर्दू मिली हुई हिंदी है.  जिसे हिन्दुस्तानी भाषा का नाम दिया गया था. दूसरी फिल्म है ‘आनंद’ जिसका निर्माण ऋषिकेश बनर्जी ने किया है. इस फिल्म में हमें ‘उर्दू’ लगभग गायब होती हुई नजर आती है और इसकी गीतों और संवादों में हिंदी का पुट देखने को मिलता है. जो खड़ीबोली के काफी नजदीक है. तीसरी प्रतिनिधि फिल्म के रूप में हमने ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’ का चयन किया है. इस फिल्म के निर्माता यस चोपड़ा है और निर्देशन किया है आदित्य चोपड़ा ने. इस फिल्म में हमें एक दूसरी ही तरह की भाषा का परिचय होता है. जिसमें हिंदी का साथ अंग्रेजी को देते हुए देखा जा सकता है. इस अंग्रेजी मिली हुई हिंदी को ही हिंग्लिश कहा जा रहा है.    
इस शोध-पत्र में मैंने तीन प्रतिनिधि फिल्मों ‘प्यासा’ 1957, ‘आनंद’ 1971 और ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’ 1995 के माध्यम से हिंदी सिनेमा की शुरूआती भाषा रही हिन्दुस्तानी से आज की हिंदी सिनेमा में तेजी से प्रचलित हिंग्लिश तक की यात्रा का विश्लेषण करते हुए इस भाषाई बदलाव के कारणों का पता लगाने का प्रयास किया है. चूँकि सिनेमा के सामाजिक सरोकार तो हैं ही लेकिन सिनेमा एक व्यासाय भी है इसलिए इस शोध पत्र में सिनेमा के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्ष को देखने का हमारा प्रयास है.
हिंदी सिनेमा बनाम हिन्दुस्तानी सिनेमा

हिंदी सिनेमा शुरू से ही भाषायी संकीर्णता से दूर रहा है. इसलिए अपने शुरुआती समय में जब इसने पौराणिक विषय को चुना तो इसकी भाषा भी उसी के अनुरूप रही. हालांकि 1931 से पहले बनने वाली सभी फिल्मे मूक थीं, लेकिन आर्देशर ईरानी ने जब पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनायीं तो उसकी भाषा भी कथानक के अनुरूप थी. शुरूआती दौर की लगभग सभी फ़िल्में पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक विषयों पर ही बनती रहीं. यहाँ यह बताते चलें की हिंदी सिनेमा पर पारसी थियेटर का सीधा प्रभाव था. यह वही थियेटर है जिसके पौराणिक पात्र भी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग धडल्ले से करते थे अर्थात उर्दू मिली-जुली हिंदी, चूँकि पारसी थियेटर के नाटक, समाज के किसी भी हिस्से की भावनाओं को आहात किये बिना उनका मनोरंजन करते थे. उनके नाटकों में धार्मिक और पौराणिक विषय होते हुए भी एक सामाजिक सौहार्द्र का माहौल रहता था. इसका कारण उनका व्यासायिक दृष्टीकोण था. उन्होने हमेशा यह ध्यान रखा की ब्रिटिश सरकार की कोपभाजन का शिकार न होना पड़े, इसलिए पारसी थियेटर ने अपने विषय-वस्तु का दायरा समेट लिया. अतः उनके नाटकों की भाषा भी उसी के अनुरूप बनी रही. इस प्रकार हिंदी सिनेमा पर भी पारसी थियेटर का भाषायी संस्कार बना रहा. इस संदर्भ में जवरी मल्ल पारख के वक्तव्य का जिक्र किया जा सकता है- “पारसी थियेटर ने हिंदी-उर्दू विवाद से परे रहते हुए बोलचाल की एक ऐसी भाषा की परम्परा स्थापित की जो हिंदी और उर्दू की संकीर्णताओं से परे थी और जिसे हिन्दुस्तानी के नाम से जाना गया. यह भारतीय उप-महाद्वीप के एक बड़े हिस्से में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई थी. हिंदी सिनेमा ने आरम्भ से ही भाषा के इसी रूप को अपनाया. इस भाषा ने ही हिंदी सिनेमा को गैर हिंदी भाषी दर्शकों के बीच में भी लोकप्रिय बनाया.यह द्रष्टव्य है कि भाषा का यह आदर्श उस दौर में न हिंदी वालों ने अपनाया न उर्दू वालों ने. साहित्य की दुनिया में इसे प्रेमचंद ने ही न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि इस भाषा का रचनात्मक और कलात्मक परिष्कार भी किया. बाद में साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन ने भाषा के इस आदर्श को अपना वैचारिक समर्थन भी दिया और उसका विकास भी किया. लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना जरुरी है कि हिंदी-उर्दू  सिनेमा का भाषायी आदर्श इसी पारसी थियेटर की परम्परा का विस्तार था और इसी वजह से जिसे आज हिंदी सिनेमा के नाम से जाना जाता है उसे दरअसल हिन्दुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना चाहिए.”(समयांतर, जुलाई-2012)         
            इस प्रकार हिंदी सिनेमा को इस भाषायी रूप से हिन्दुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना सर्वोपयुक्त होगा. लेकिन राजनैतिक और सिनेमा के व्यवसायिक कारणों से, खासकर इसे आजादी के बाद से हिंदी सिनेमा का नाम दिया जाने लगा. आज भी जबकि हिंदी सिनेमा में अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ा है और उर्दू काफी हद तक ख़तम हो चुका है. तब भी हम पाएंगे कि उसके संवादों में, गीतों में उर्दू शब्दों का मिठास बरकरार है.

शुरूआती हिंदी फिल्मों की भाषा   
  
पहली बोलती ‘फिल्म आलम’ आरा के साथ ही फिल्मों में ध्वनि देने का प्रचलन शुरू हुआ. तब से लेकर आज तक निरंतर संवादों और गीतों पर निरंतर प्रयोग होता चला आ रहा है. या सीधे- सीधे कहें तो हिंदी सिनेमा की भाषा पर प्रयोग होता चला आ रहा है. हमने इस शोध-पत्र में शुरूआती दौर की फिल्मों की भाषा के अध्ययन के लिए प्रतिनिधि फिल्म के रूप में  गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ का चयन किया है. इसके चयन का एक कारण यह है कि यह फिल्म एक हिन्दू और हिंदी भाषी परिवार के पृष्ठभूमि पर आधारित है. एक-दो मुस्लिम पात्र भी हैं लेकिन वे मुख्य पात्रों के रूप में नहीं हैं. एक कारण और है कि इस फिल्म को टाइम पत्रिका ने 2005 में दुनिया की सौ सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में रखा था और अभी पिछले वर्ष वेलेंटाइन डे के अवसर पर इसे दस रोमांटिक फिल्मों की सूची में रखा है. इस प्रकार यह फिल्म तत्कालीन समय की प्रतिनिधि फिल्म कही जा सकती है.
            खैर ! हम फिल्मों की भाषा पर बात कर रहे थे. तो शुरूआती दौर की फिल्मों की भाषा पारसी थियेटर के प्रभाव के कारण हिन्दुस्तानी थी. यह एक सतही कारण कहा जा सकता है. मूल कारणों की तरफ देखेंगे तो पाएंगे कि पारसी थियेटर की तरह ही हिंदी सिनेमा की भी मज़बूरी व्यासायिकता ही रही. आजादी के पहले यह देश हिन्दू-मुसलमानों का देश था. और हिन्दू-मुसल्मा दोनों की बोलचाल की भाषा हिन्दुस्तानी थी. यह इस बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देवकीनंदन खत्री का प्रसिद्द उपन्यास चंद्रकांता पढने के लिए अधिकतर लोगों ने हिंदी सिखना शुरू किया. इसका मतलब यह हैं कि हिंदुस्तान के अधिकतर लोग हिंदी नहीं जानते थे और जो जानते भी थे वे हिंदी-उर्दू और फारसी के मिलेजुले स्वरुप का ही अनुसरण कर रहे थे. और सबसे बड़ी बात यह है कि उस समय सिनेमा देखता कौन था ? जाहिर है कि वही नगरों का पढ़ा-लिखा वर्ग. जिन्हें उर्दू-फारसी का संस्कार प्राप्त था. इस लिए सिनेमा की यह मज़बूरी थी कि वह एक ऐसी भाषा को प्रयोग में लाये जिसे वह पढ़ा-लिखा वर्ग तो देखे ही साथ ही अनपढ़ जनता भी आकर्षित हो सके. शुरूआती दौर की हिंदी फिल्मों की भाषा हिन्दुस्तानी बनी रहने का एक कारण और रहा कि कहानी और पटकथा लेखक तथा गीतकार अधिकतर मुसलमान थे. नसरीन मुन्नी कबीर की किताब में ‘टाकिंग फिल्म्स: कन्वर्सेशन ऑन हिंदी सिनेमा विद जावेद अख्तर’ में दिए एक साक्षत्कार में जावेद अख्तर कहते हैं- भारत की बोलती फिल्मों ने अपना बुनियादी ढांचा उर्दू फारसी थियेटर से हाशिल किया. इसलिए बोलती फिल्मों की शुरुआत उर्दू से हुई. यहाँ तक कि कलकत्ता का नया थियेटर भी उर्दू के लेखको का इस्तेमाल करता था. बात यह है कि उत्तर भारत के शहरी इलाके में उर्दू बटवारे से पहले बोलचाल की जुबान थी और इसे ज्यादतर लोग समझते थे और यह पहले की तरह आज भी बड़ी नफ़ीस जबान है जिसके भीतर हर तरह के जज्बात और ड्रामे की तजुर्मानी की सलाहियत है”           
इस प्रकार तक़रीबन सत्तर के दशक तक की अधिकतर फिल्मों की भाषा हिन्दुस्तानी ही बनी रही. चाहे वह हुमायूँ (1945) अनमोल घड़ी (1946) अनोखी अदा (1948) झाँसी की रानी (1952) देवदास (1955) अमानत (1955), प्यासा (1957) मधुमती (1958), सुजाता(1960), बंदिनी (1963) हो या दो दूनी चार(1968) हो. 
जहाँ तक प्यासा फिल्म की बात है तो हम पाएंगे की फ़िल्म के संवाद और गीतों में इसी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग है. इसकी एक बानगी इस संवाद में देखा जा सकता है. यह दृश्य उस समय का है जब फिल्म का नायक विजय सभागार में पहुंचता है तो, देखता है कि पूरा सभागार खचाखच भरा हुआ है और उसकी मौत को अपने फायदे का धंधा बनाने वाला प्रकाशक माइक पर कह रहा है – दोस्तों, आपको पता है कि हम आज यहाँ ‘शायर-ए-आजम’ विजय मरहूम की बरसी में इकठ्ठा हुए हैं. पिछले साल आज के दिन ही वह मनहूस घड़ी आयी थी. जिसने इस दुनिया से इतना बड़ा शायर छीन लिया. अगर हो सकता तो मैं अपनी सारी दौलत लुटाकर, खुद मिटकर भी विजय को बचा लेता लेकिन ऐसा हो न सका. काश ! आज वह जिन्दा होते तो देख लेते कि जिस दुनिया ने उन्हें भूखा मारा, वही दुनिया उन्हें हीरों और जवाहरातों में तौलना चाहती है जिस दुनियां में वह गुमनाम रहे वही दुनिया उन्हें दिलों के तख़्त पर बिठाना चाहती है, उन्हें शोहरत का ताज पहनाना चाहती है. उन्हें गरीबी और मुफलिसी की गलियों से निकालकर महलों में राज कराना चाहती हैं. (प्यासा-1957)   
     इसी प्रकार इस फिल्म के एक प्रसिद्द गीत में भी इसी हिन्दुस्तानी भाषा का प्रभाव देखने को मिलता है यथा – 
हर इक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उल्फत, दिलों में उदासी
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी
ये दुनियां अगर मिल भी जाये तो क्या है ?
ये दुनियां अगर मिल भी जाये तो क्या है !

इन संवादों और गीतों से स्थिति काफी साफ़ हो जाती है कि लगभग सत्तर के दशक तक की फिल्मों की भाषा आम बोलचाल की बनी रही जिसे हिन्दुस्तानी के नाम से जाना जाता था.

जब हिंदी की तरफ झुका हिंदी सिनेमा

आजादी के बाद की परिस्थितियां काफी अलग हो गयीं थीं. देश दो भागों में विभाजित हो चुका था और भाषा धार्मिक होने लगी थी. हिन्दुओं का देश हिंदुस्तान हो गया और मुस्लिमों का पाकिस्तान. इसको लेकर काफी कत्लेयाम भी मचा. लेकिन गाँधी जैसे लोगों की वजह से हिंदुस्तान में एक सहूलियत हुई कि जो मुसलमान हिंदुस्तान में रहना चाहता है वह रह सकता है. इसलिए सिनेमा जैसे जगहों पर मुसलमानों का जो प्रभाव रहा उनके न जाने के वजह से बचा रहा. क्योंकि हिंदी सिनेमा जैसे व्यासाय में मुसलमानों का काफी पैसा लगा था. एक तरह से कई लोगों की रोटी का सवाल बना रहा. इसलिए मुसलमान, जो बम्बइया सिनेमा में ही अपना भविष्य देख रहे थे वे उसे छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए. कुछ गए भी तो हालात के स्थिर होने के बाद वापस लौट आये. इनमे शायर, गीतकार, कहानीकार, संवाद लेखक, अभिनेता, अभिनेत्री निर्माता और निर्देशक भी थे. जैसे दिलीप कुमार, अबरार अल्वी, वहीदा रहमान, कादर खान इत्यादि.
इस कारण से लगभग हिंदी सिनेमा की भाषा आजादी के बाद भी हिन्दुस्तानी बनी रही. लेकिन समय बड़ा बलवान होता है जिस सिनेमाई दुनिया को हिन्दू समाज निम्न कोटि का मानता था उसी में काफी तेजी से रोजगार और शोहरत के लिए जाने की होड़ लग गयी. अतः हिंदी सिनेमा में साठ-सत्तर के दशक से हिन्दुओं का रुझान हिंदी सिनेमा की तरफ बढ़ा. यहाँ मेरे कहने का मतलब यह कतई न समझा जाये कि हिंदी सिनेमा में पहले हिन्दू वर्ग बिलकुल नहीं था, लेकिन जो थे; उन लोगों को इस समाज में सम्मान की दृष्टी से नहीं देखा जाता था. तो हिन्दुओं के हिंदी सिनेमा में आने की वजह से सिनेमा की हिन्दुस्तानी भाषा से उर्दू को दूर करने का प्रयास जाने-अनजाने में ही होने लगा. कभी- कभी यह यह सोचा-समझा हुआ भी लगता है. क्योंकि यह सभी जानते हैं कि सिनेमा एक व्यासाय है इसलिए सिनेमा कभी भी भाषायी संकीर्णता को आत्मसात नहीं करता, लेकिन जब उसके दर्शकों की संख्या भाषा के आधार पर ही निर्धारित हो रही हो तो उसकी मज़बूरी हो जाती है कि वह सिनेमा की भाषा भी उन्ही के अनुरूप रखने का प्रयास करे.
इस प्रकार हम पाएंगे की सत्तर के दशक से लेकर नब्बे के दशक तक की लगभग सभी फ़िल्में अपना रुझान हिंदी की तरफ करने का प्रयास करती हैं. यह गौर करने वाली बात है, कि इसी समय में धार्मिक, और पौराणिक धारावाहिकों (रामायण, महाभारत, कृष्णा) के अलावा हरिदर्शन, भक्त-प्रह्लाद और जय संतोषी माँ जैसी फ़िल्में बड़ी उत्साह के साथ बनीं. यह एक ऐसा समय था कि ऐसी धार्मिक फ़िल्में न सिर्फ बनीं बल्कि प्रसिद्द भी हुईं और अच्छा व्यापार भी किया. इसप्रकार इस समय में हिन्दी-सिनेमा के भीतर एक लंबी कड़ी हिन्दू-धर्मकथाओं पर आधारित फिल्मों की रही और उनकी संवाद-भाषा को संस्कृत की तरफ झुकाने का प्रयास भी फिल्मकारों द्वारा किया गया. इसके लिए ज्यादा उदाहरण ना देते हुए जिस दशक में फिल्म शोले (1975) बनी थी, उसी दशक की दो फिल्मों हरिदर्शन(1972) और जय़ संतोषी मां(1975) को याद कर लेना काफी होगा. फिल्म हरिदर्शन में लक्ष्मी विष्णु के वाराह रुप धारण करने पर अचरज में पड़े नारद से कहती हैं- “  प्रभु तो जैसा कारण हो वैसा ही रुप लेकर पापियों के पास जाते हैं. आप उनके प्रिय प्रतिनिधि होकर भी ये नहीं जान पाये?’’ और जय संतोषी मां’ फिल्म की तो शुरुआती पंक्ति ही है- संतोषी मां की महिमा अपार है. हर भक्त ने उनकी महिमा का गुणगान अपने अपने ढंग से किया है. इस चित्र की कथा भी कुछ धार्मिक पुस्तकों और लोककथाओं के आधार पर है. आशा हैआप इसे सच्ची भावना से स्वीकार करेंगे.
चूँकि ये धार्मिक फ़िल्में हैं इसलिए सिनेमा की भी मज़बूरी है कि उसकी भाषा भी उसी के अनुरूप रहे. लेकिन इन बीस बर्षों में बनी फिल्मों को देखा जाय तो यह साफ़ नजर आता है कि अधिकतर फिल्मों की संवाद-भाषा को उस हिंदी की तरफ झुकाने का प्रयास किया गया है जो हिन्दुस्तानी थी. यहाँ हम हिंदी-उर्दू के शब्दों का औसत देखें तो पाते हैं कि सत्तर के दशक के पहले की भाषा में पचास-पचास प्रतिशत के औसत से हिंदी-उर्दू  के शब्द हैं, लेकिन यही औसत सत्तर के बाद काफी बदल गया है, जो लगभग अस्सी और बीस के औसत का है.
इस अध्ययन के लिए हमने जो दूसरी फिल्म ली है वही ऋषिकेश मुखर्जी की कालजयी फिल्म ‘आनंद’ जिसमे संवाद लिखा है गुलजार, डी.एन. मुखर्जी, विमल दत्त और स्वयं ऋषिकेश मुखर्जी ने.  
इस बीच के सामाजिक और राजनैतिक कारणों का अध्ययन करने पर अनायास ही मेरी दृष्टी एक तरफ दौड़ती है वह है इसी समय काल में जनता पार्टी की सरकार का बनना और स्वयं सेवक संघ की स्थिति मजबूत होना. यह कारण सिनेमाई भाषा के बदलाव के लिए किस हद तक जिम्मेदार है ? यह एक अलग शोध का विषय है. लेकिन इसका जिक्र करना लाजमी सा लगा. इसके अलावा एक बात और थी. जब देश से मुसलमान ही चले गए तो देश उनकी भाषा को लेकर क्या करेगा ? जो बचे भी, वो हिंदी को ही अपना दिल दे बैठे. इस प्रकार धीरे-धीरे एक नए प्रकार के दर्शक का जन्म हुआ. जो हिंदी अधिक कायदे से समझ सकता था. इसलिए हिंदी सिनेमा की भाषा भी इसी बोलचाल की भाषा को आत्मसात करने लगी.
मसलन आप यहाँ ‘आनंद’ फिल्म के संवाद को देख सकते हैं यथा – “ हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ बंधी है, कब, कौन, कैसे उठेगा, ये कोई नहीं जनता”
इसके अलावा – “क्या फर्क है सत्तर साल और छह महीने में. मौत तो एक पल है बाबू मोसाय. आने वाले छह महीनो में जो लाखो पल मैं जीने वाला हूँ उसका क्या होगा बाबू मोसाय. जिन्दगी बड़ी होनी चाहिए लम्बी नही. हद कर दी, मौत के डर से अगर जीना छोड़ दिया, तो मौत किसे कहते हैं. बाबू मोसाय जबतक जिन्दा हूँ तबतक मरा नहीं, जब मर गया साला, मैं ही नहीं तो फिर डर किस बात का.
इन संवादों में स्पष्टतया देखा जा सकता है कि लगभग नब्बे प्रतिशत हिंदी के शब्दों का प्रयोग किया गया है.

हिंग्लिश होती हिंदी सिनेमा की भाषा

आज जबकि भूमंडलीकरण का दौर चल रहा है जिसको प्रचारित और प्रसारित करने का जिम्मा भाषाई रूप से अंग्रेजी पर है, या यूँ कहे तो; भूमंडलीकरण का भाषायी ब्रम्हास्त्र अंग्रेजी है. ऐसे में सिनेमा की भाषा कहाँ स्थिर रहने वाली, क्योंकि सिनेमा में सामाजिक सरोकार होते हुए भी व्यावसायिकता उसके मूल में है. इस लिए हिंदी सिनेमा आज अपनी जरुरत और मज़बूरी के तहत हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी आत्मसात करने में लगा हुआ है.
दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे 1995 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म हैजो डीडीएलजे के नाम से भी प्रसिद्ध है. इसका पहला प्रदर्शन 19 अक्टूबर 1995 को हुआ और 20 अक्टूबर 1995 को यह पूरे भारत में एक साथप्रदर्शित हुई. इस फिल्म का निर्देशन प्रसिद्ध फिल्म निर्माता और निर्देशक यश चोपड़ा के पुत्र आदित्य चोपड़ा ने किया. शाहरुख खानकाजोल और अमरीश पुरी इसके प्रमुख कलाकारों में थे. इस फिल्म के नाम सबसे ज्यादा चलने का रिकॉर्ड है. यह मुंबई के मराठा मंदिर में तेरह सालों से भी ज्यादा समय तक चली. मार्च 2009 में इसने मुंबई के मराठा मंदिर में 700 सप्ताहों तक चलने का रिकॉर्ड बनाया इससे पहले यह रिकॉर्ड शोले के नाम था जो करीब साढ़े पांच सालों तक एक ही सिनेमाघर में चली.

चूँकि इस फ़िल्म में अंग्रेजी के संवाद उतने नहीं मिलते, लेकिन जितने मिलते हैं उसे भाषाई रूप के बदलते स्वरूप का आगाज कहा जा सकता है. आगे इस फिल्म के कुछ संवाद प्रस्तुत हैं जो हिंदी सिनेमा की भाषा के बदलने (हिन्दुस्तानी से हिंग्लिश) की सूचना देती है. यथा-
1.       “यू नो मेक लॉन्ग हॉलीडे”
2.       “या तो कोई बस पकड़ लें या कोई कार हायर कर ले”
3.       “नाउ प्लीज! मेरा पीछा मत करो”
4.       “हाउ डे यू टच मी ... तुमने मुझे छुआ कैसे ? व्हाट द ब्लडी हेल यू”
5.       “ये तो मानना पड़ेगा की तुम्हारी च्वाइस का जबाब नहीं”
6.       “लिसिन टू मी सिमरन...लिसिन टू मी” 
7.       “मैं सच कह रहा हूँ कल रात कुछ भी नहीं हुआ था.. बिलीव मी”
8.       “अरे जरा ये खोल देंगे...”... आफकोर्स !”
9.       “अच्छा-खासा कमरा मिल रहा था...लेकिन तुम्हे मेरे साथ इस तबेले में रात गुजारना मंजूर है लेकिन उस कमरे में नहीं....ओह गॉड...आई...आई हिट गर्ल्स...”
10.   अब कल साम को बर्न से ट्रेन मिलेगी...कल सुबह आठ बजे की पहली बस पकड़ेंगे...मैंने सब पता कर लिया है... यू डोंट वरी ऐट ऑल...अब इसके बाद कोई गड़बड़ नहीं हो सकती ...नथिंग..!
ये सभी संवाद फिल्म के अलग-अलग दृश्यों के हैं. जो यह साबित करने के लिए प्रयाप्त हैं कि हिंदी सिनेमा की भाषा में कैसे अंग्रेजी अपनी जगह बनाने का प्रयास कर रही है.
अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग ऐसा नहीं है कि इससे पहले बनने वाली फिल्मों में नहीं हुआ है. घायल (1991) लम्हे (1992) जो जीता वही सिकन्दर (1993) हम हैं राही प्यार के (1994) हम आपके हैं कौन (1995) जैसी कई ऐसी फ़िल्में हैं जिसमें अंग्रेजी का बीजवपन शुरू हो गया था. लेकिन दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1996)  की भाषा के हिंग्लिश स्वरूप का शुरुआत माना जाना इसलिए जरूरी हो जाता है. कि इस फिल्म ने भारतीय दर्शकों के दिलों पर कई वर्षों तक राज किया और आज भी हिंदी सिनेमा के दर्शक इस फिल्म को उसी उत्सुकता और उत्साह से देखने में कतई परहेज नहीं करते. जाहिर सी बात है कि कला, साहित्य और सिनेमा एक ऐसा क्षेत्र है जो कभी-कभी व्यावसायिकता, प्रसिद्धि और पुरस्कार से भी एक विशेष प्रचलन और दौर की शुरुआत हो जाती है. यह प्रचलन भाषायी, तकनिकी, शैली या आन्दोलन जैसी किसी भी रूप में हो सकती है. इस रूप में हम ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ को भाषा की दृष्टि से हिंदी फिल्मों में हिंग्लिश के प्रचलन की शुरुआत करने वाली फिल्म के रूप में देखते है.               
इस फिल्म के आने के बाद इससे पहले की जो प्रसिद्ध फ़िल्में हैं और इसके बाद की जो प्रसिद्द फ़िल्में हैं उनका भाषायी रूप अध्ययन करने पर यह स्पष्ट तौर पर सामने आता है कि इस फिल्म ने सिनेमा की भाषा(संवाद) में अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाई है. क्योंकि इसके बाद आने वाली जितनी भी प्रसिद्द फिल्मे हैं उसमें हिंदी के साथ प्रयोग किये जा रहे उर्दू और फारसी शब्दों का जो बचा-खुचा स्थान था अंग्रेजी ने हथिया लिया है.   
राजा हिन्दुस्तानी (1997) दिल तो पागल है (1998) कुछ कुछ होता है (1999) हम दिल दे चुके सनम (2000) कहो ना प्यार है (2001) लगान (2002) देवदास (2003) कोई मिल गया (2004) वीर-ज़ारा (2005) ब्लैक (2006) रंग दे बसंती (2007) तारे ज़मीन पर (2008) जोधा अकबर (2009) थ्री इडीयट्स (2010) दबंग (2011) ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा (2012) बर्फी! (2013) भाग मिल्खा भाग (2014) क्वीन (‌2015) के आलावा 2016 और 2017 में प्रदर्शित होने वाली हिंदी फ़िल्में, भाषाई तौर पर हिंदी की फ़िल्में नहीं रह गयी हैं.

निष्कर्ष     
सिनेमा और समाज दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. इसलिए दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. सिनेमा की मज़बूरी है कि वह दर्शक की रूचि का ख्याल रखे. भाषाई रूप से किया गया सिनेमा के इतिहास का यह विभाजन और इस समय काल में बनीं फिल्मे इस बात की प्रत्यक्ष गवाह हैं. दर्शकों की रूचि सामाजिक परिस्थितियों के फलस्वरूप बदलती रहती है. कभी-कभी सिनेमा भी उनकी रूचि के बदलाव का कारण बनता है. उदाहरण स्वरूप ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ और ‘ग्रैंड मस्ती’जैसी फिल्मों ने अपना एक अलग दर्शक वर्ग तैयार किया है. कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों का एक दूसरे के प्रति गहरा रिश्ता है. यही सारी बातें सिनेमा की भाषा पर भी लागू होती है. अतः हम देख सकते हैं कि प्रत्येक समय में सिनेमा की भाषा का स्वरूप बदलता गया है.
आज के भूमंडलीय समय में एक अलग तरह की परिस्थिति का जन्म हुआ है. इससे हिंदी सिनेमा का दर्शक वर्ग पहले वाला नहीं रह गया है. आज हिंदी सिनेमा केवल भारतीय दर्शकों के लिए नहीं बन रहा है बल्कि प्रवासी भारतियों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है. यह वह दर्शक वर्ग है जो जैसे-तैसे हिंदी समझ भर लेता है अतः हिंदी सिनेमा की भाषा का हिंग्लिश होना स्वभाविक सा जान पड़ता है.

         
संपर्क:
महेश सिंह, शोधार्थी, हिंदी विभाग, पांडिचेरी यूनिवर्सिटी, पांडिचेरी- 605014

मोब.  7598643258, gguhindi@gmail.com

यह खेल खत्म करों कश्तियाँ बदलने का (आदिवासी विमर्श सपने संघर्ष और वर्तमान समय)

“सियाह रात नहीं लेती नाम ढ़लने का यही वो वक्त है सूरज तेरे निकलने का कहीं न सबको संमदर बहाकर ले जाए ये खेल खत्म करो कश्तियाँ बदलने...