चयनित हिंदी फिल्मों में होमोसेक्सुअलिटी का रूपांकन : (दोस्ताना, गर्लफ्रेन्ड, फायर, पेज थ्री)

समाज, होमोसेक्स्शुलिटी और पितृसत्ता

दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं में महिला और पुरुष के रिश्ते को ही स्वीकारा गया और इसे ही वैध और पवित्र माना गया। इसके बावजूद इन रिश्तों के इतर महिला- महिला, पुरुष-पुरुष और ट्रांसजेंडर रिश्ते हर काल में मौजूद रहे हैं। पुराने साहित्य में ऐसे रिश्तों के होने के तमाम संकेत और उदाहरण मिलते हैं।[1] पर इन रिश्तों को सामज ने वैधता नहीं दी। हमेशा ही नीची नजर से देखा गया और मुख्य समाज से काट दिया गया। कहीं-कहीं दंड का प्रावधान भी रहा है। लेकिन पितृसत्ता और मानवीय चुनाव के प्रति बढ़ती समझ के साथ वर्तमान समय में बहुत सारे देशों में होमोसेक्शुअल संबधों को हेट्ररोसेक्शुअल संबंधों की तरह ही वैध करार दे दिया गया है। अब कई देशों में ऐसे लोग साथ रह सकते हैं, शादी कर सकते हैं। 
भारत में होमोसेक्शुअलिटी गैरकानूनी है। बहुत से लोगों के विरोध और कानूनी लड़ाई करने बाद इन संबंधों को 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने गैर कानूनी नहीं माना। लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और 2014 में फिर से होमोसेक्शुलिटी को गैरकानूनी करार दे दिया गया। बावजूद इसके कि वात्यायन के कामसूत्र में, स्कंद पुराण, भगवत पुराण आदि में ऐसे संबंधों के होने के प्रमाण मिलते हैं[2] इन संबंधों को पश्चिम आयातित के रूप में देखा गया और ऐसे संबंधों की कड़ी निंदा की गई।
हम अब इसको समझने की कोशिश करते हैं कि क्यों जहां का समाज ज्यादा पितृसत्तात्माक और फ्यूडल होता है वहां ऐसे रिश्तों को अपराध माना जाता है? दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज में संबंधों और जोड़ों को अपोज़िट बाइनरी में ही देखा जाता है जिसमें स्त्री और पुरुष के बीच ही सेक्शुअल और प्रेम का रिश्ता मान्य होता। इस व्यवस्था को संचालित करने वाली संस्थाओं के केंद्र में परिवार होता है। जहां से इस व्यवस्था को चलाये रखने के लिए स्त्री-पुरुषों (जेंडर) को गढ़ा जाता है। जो कि इस व्यवस्था को आगे बढ़ाते हैं। इनमें से एक भी कड़ी के बिखरने से पितृसत्तत्मक व्यवस्था को चुनौती मिलती है और उसके टूटने का खतरा पैदा होता है इसीलिए दुनिया के कोई भी समाज इस बाईनरी व्यवस्था से हट कर बनाये गये संबंधों को स्वीकृति नहीं देता है। हेट्रोसेक्शुअल रिश्तों के अलावा महिला महिला, पुरुष-पुरुष और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के बीच बना कोई भी रिश्ता समाज के सामने यही चुनौती पेश करते हैं। लेकिन जैसा कि हर नियम के अपवाद होते हैं या तोड़ने वाले होते हैं। और हर काल में होते हैं।   

सिनेमा में होमोसेक्शुअलिटी की शुरुआत

हिंदी सिनेमा में लंबे समय तक चुप्पी बनी रही है और एक तरह का निषेध भी रहा है ऐसे विषयों के प्रति। लेकिन जब से सेक्स और सेक्शुअलिटी के चित्रण थोड़ा खुलापन आया तब से होमोसेक्शुअल संबंधों पर छिटपुट दृश्य सामने आये। मस्त कलंदर (1991), सड़क (1991), तमन्ना (1997), दरम्यान (1997,) बॉम्बे (2005), मर्डर (2011), आदि कई फिल्मों मे होमोसेक्शुअल चरित्रों को दिखाया गया लेकिन इन ज्यादातर को कॉमिक रचने के लिए (खासकर हिजड़ा चरित्रों का काम ही कॉमिक क्रिएट करना बन गया), कमर्शियल फायदों के लिये ही इस्तेमाल किया गया। हिंदी सिनेमा में इसको अलग-अलग तरह से देखा गया है। जैसे हास्य पैदा करने के लिए, हिजड़ा के पर्याय के रूप में, एक तरह की मानसिक बीमारी के रूप में और बहुत ही कम होमोसेक्शुअल लोगों की जिंदगी की कठिनाईयों का जायजा लेने के रूप में भी।[3] इन फिल्मों में अल्पसंखयक सेक्सुअलिटी को दिखाया तो गया लेकिन वो फिल्म की कहानी का मुख्य बिंदु नहीं रही। पहली बार फायर में और फिर पेज थ्री में इन लोगों को मुख्य भूमिकाओ में रखा गया। कहानी इन्ही किरदारों के जीवन, सम्बंधों की पड़ताल करती नज़र आई। दोस्ताना और गर्लफ्रेंड की कहानी भी समलैंगिक रिश्तों और किरदारों के इर्द गिर्द बुनी गई है। और ये मुख्यधारा में भी आती हैं इसीलिये प्रस्तुत पेपर में इन चार फिल्मों को अध्ययन के लिए चुना गया है। अब यहां सवाल आता है कि इन किरदारों और उनके जीवन को कैसे चित्रित किया गया है। ये चित्रण क्या बयां करता है। बॉलीवुड ने इन मुद्दों को किस नज़रिये से दर्शकों के सामने रखा है। 

हास्य या भय में ही दिखाना

होमोसेक्शुअलिटी के मुद्दे को फिल्मों में शामिल किये जाने के समय से ही एक खास तरह की प्रवृत्ति हिंदी सिनेमा में दिखाई देती है। ऐसे किरदार हमेशा हंसी के पात्र होते हैं। उनके हाव-भाव और बातें लगभग सभी में हास्य पैदा होता है। दोस्ताना में जब जॉन (अब्राहम) और अभिषेक (बच्चन) पहली बार एक गे से मिलते हैं तो वह मजकिया सा है, वह आंसू नाक बहाते हुए रो रहा है कि उसका बॉयफ्रेंड कही दूर चला गया। जॉन और अभि की अपनी खुद के जीवन में कितनी बार ऐसी हास्य स्थिति पैदा होती है। जैसे अभि की मां जब उसके पार्टनर को बेटे की बहू मानकर उसे चूड़िया देती है, और उससे गृह प्रवेश का शगुन करवाती है। लेकिन जब इस का अधिक विस्तार होता है और लेस्बियन के बारे में फिल्म बनती है तो उसे एक किस्म का हॉरर दिखाते हैं। इशा कोप्पिकर और अमृता अरोरा के रिश्ते में यही चित्रण देखने को मिलता है। ईशा समलैंगिक है और अमृता को पसंद करती है लेकिन अमृता समलैंगिक नहीं है और वह एक लड़के से प्यार करने लग जाती है। अब इस लड़के को ईशा अपनी राह का कांटा मानकर उसे किसी भी तरह हटाना चहती है। वह उसे मार डालने की भी कोशिश करती है। यहां ईशा को सिर्फ इसीलिए खलनायक की भूमिका में दिखाया गया है क्योंकि वह समलैंगिक है और अमृता को पसंद करती है। वह अमृता का खयाल रखती है लेकिन वह नहीं चाहती कि अमृता किसी लड़के को पसंद करे या उससे शादी करे। और इसके लिए वह किसी भी हद तक अपराधी बन सकती है। वह अमृता को बताती भी नहीं कि उसे पसंद करती है। लेकिन उसे अपने पास रखने के लिए किसी भी तरह का काम करती है। वह अमृता के प्रेमी पर जानलेवा हमला करती है, अमृता से झूठ बोलती है यहां तक कि अमृता के साथ जबरदस्ती भी करती है। कुल मिलाकर समलैंगिक ईशा को फिल्म में सिनिकल और ज़ाहिल किरदार के रूप में दिखाया गया है[4] इससे कोई भी व्यक्ति डरेगा और नापसंद करेगा। कुछ कमोबेस ऐसी ही स्थिति पेज थ्री में भी होती है। कोंकणा (सेन) का दोस्त उसके ही प्रेमी के साथ समलैंगिक रिश्ते में पकड़े जाते हैं। कोंकणा का बहुत नजदीकी दोस्त और प्रेमी उससे धोखा करते हैं। उसे इस घटना से एक सदमा लगता है और यहीं यह संदेश भी दर्शकों को जाता है कि समलैंगिक धोखेबाज़ होते हैं जिन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। होमोसेक्शुअल्स की जो तस्वीर ये फिल्में बनाती हैं वो झूठे, धोखेवाज़, पागल और ज़ाहिल लोगों की छवि पेश करती हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ऐसे चरित्रों को या तो विदूषक के रूप में[5] या खलनायक के रूप में चित्रित किया जाता है।

पितृसत्ता और स्टीरियोटाईप छायांकन

इन चयनित फिल्मों में जहां एक तरफ लंबे समय से चली आ रही होमोसेक्शुअलिटी के प्रति चुप्पी को तोड़ने की और सिर्फ महिला-पुरुष जेंडर को ही मुख्यता देने की स्टीरियो टाईप प्रवृत्ति को तोड़ने की कोशिश की गई है लेकिन फिर आगे चल कर यही फिल्में एक दूसरे तरह के स्टीरियो टाईप में इन चरित्रों को ढ़ालती भी हैं। ये फिल्में गे और लेस्बियन चरित्रों के जोड़ों को महिलापन (femininity) और पुरुषपन (masculinity) के साथ चित्रित करते हैं। दोस्ताना फिल्म में जॉन अब्राहम और अभिषेक बच्चन की गे जोड़ी में जॉन पुरुष की तरह रहता है लेकिन अभिषेक के हाव भाव, हाथ मटका के और शरमा कर जॉन के कंधे पर सिर रखने, बार बार उसे छू कर, हंस हंस कर बोलने का तरीका महिलापन को दिखाता है। वह महिला गुणों वाला है और उसका पार्टनर पुरुष के गुणों वाला। पेज़ थ्री में भी कोंकणा का प्रेमी पुरुषपन लिए व्यवहार करता है। लेकिन उसका गे पार्टनर महिलाओं जैसी चाल चलता है, लड़कियों से पक्की दोस्ती करता है और आवाज़ में भी कोमलता है। इसी तरह गर्लफ्रेंड में ईशा कोप्पिकर का व्यवहार लड़कों सा दिखाया है। वह कराटे करती है, लड़कों से कंपटीशन करती है, अपेक्षाकृत मसल्ल्स हैं और पैसे कमाती है। जबकि उसकी दोस्त पूरी तरह से फेमिनाईन है और एक मॉडल है। बाद में ईशा अपने बाल भी लड़कों जैसे काट लेती है। वह कंट्रोलिंग है। मर्दाना गुणों वाली है। इस तरह का चित्रण हालांकि फायर में नहीं मिलता लेकिन उसमें दूसरे तरह का स्टीरियों टाईप दिखाया गया है। जबकि यह पूरी तरह सच नहीं होता और ज्यादातर समलैंगिक लोग ऐसे नहीं दिखते।[6]
ज्यादातर लेस्बियन रिश्तों के बनने का कारण उन महिलाओं की अपने पुरुष साथी के साथ असंतुष्टि की वजह से बनता है। दूसरा कारण जो गर्लफ्रेंड में बताया गया है कि बचपन में हुए चाईल्ड अब्यूज़ की वजह से लेस्बियन बनते हैं। यानि कि उनकी भावनाएं और एहसास हेट्रोसेक्शुअल लोगों जैसे नहीं हैं। वे एक अब्नार्मलिटी का शिकार हुए हैं इसलिए ऐसे हैं। फायर में शाबाना आज़मी और नंदिता दास दोनों के ही पति उनसे दूर हैं। नदिता दास का पति किसी दूसरी महिला के साथ संबंध में है और नंदिता को खुश नहीं रखता और शबाना का पति गंगा के किनारे घाट पर प्रवचन कहता है। वह भी अपनी पत्नी पर ध्यान नहीं देता और इस तरह दोनों देवरानी-जेठानी की आपस में घनिष्टता हो जाती हैं जो कि अंतत: लेस्बियन हो जाती हैं। हालांकि दुनिया की हक़ीकत कुछ और ही है। वास्तव में लेस्बियन होने और जीवन में पुरुषों के साथ हुए किसी बुरे अनुभव का कोई आपसी संबंध नहीं होता। ऐसी कई कहानियां है जो कहती हैं कि किसी अब्नार्मलिटी की वजह से महिलाएं लेस्बियन नहीं होतीं और न ही पुरुष गे।[7] फायर फिल्म की कई नारीवदियों ने इसीलिए आलोचना भी की कि क्या लेस्बियन होना किसी बुरे अनुभव का परिणाम है? या फिर पुरुष अपनी पत्नियों की सेक्शुअल जरूरतों को नकार देंगे तो वे लेस्बियन हो जायेंगी? इससे इतर लैंगिक रिश्तों में पितृसत्ता के प्रति जो स्वाभाविक चुनौती होती है खतम हो जाती है।[8]

स्तरीकरण

इन फिल्मों के अध्ययन से एक और मुख्य बिंदू सामने आता है कि होमोसेक्शुअल रिश्तों की स्वीकार्यता में एक खास प्रवृत्ति नज़र आती है। ये है लेस्बिअन और गे और फिर ट्रांसजेंडर लोगों के स्तरीकरण का। ये स्तरीकरण फिल्मों के चरित्रों में भी है और बाहर फिल्मों के नाम पर होने वाले विरोधों, बहसों में भी। फिल्मों में ज्यादातर लेस्बियन को हिंसक और भयानक दिखाना उनके प्रति अस्वीकार भाव को दिखाता है। गर्लफ्रेंड की इशा से डरा जा सकता है जबकि दोस्ताना के जॉन अभि पर हंसा जा सकता है, पेज थ्री के होमोसेक्सुअल चरित्र भी उतने भयानक नहीं है, वो कोंकणा के साथ धोखा करते हैं पर किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते। मतलब कि गे रिश्तों को समाज में लेस्बियन की अपेक्षा ऊंचा माना जाता है। गे के लिए समाज में एक मौन लेकिन स्वीकार भाव दिखता है। इसका एक बड़ा उदाहरण है फायर फिल्म के रिलीज पर हुआ हिंदूवादी संगठनों की तरफ से विरोध। जहाँ एक देवरानी जेठानी का सेक्शुअली जुड़ जाना महिलावादी, शिव सेना और बजरग दल के लिए सांसकृतिक उत्तेजना और विरोध का मुद्दा बन जाता है।[9] जबकि दोस्ताना पेज थ्री और यहाँ तक कि आई एम में दिखाये गये गे रिश्ते उनके लिए साधारण से हैं, जिन पर किसी भी तरह की उत्तेजना या प्रतिक्रिया नहीं होती। इन रिश्तों को चुपचाप देख लिया जाता है और किनारे कर दिया जाता है लेकिन लेस्बियन की बात आते ही मुद्दा स्वीकार के बाहर हो जाता है और तब संस्कृति की दुहाई से लेकर आक्रमकता का रुख भी अपनाया जाता है।[10] लगभग ऐसा ही रुख फिल्मकारों का इन रिश्तों को फिल्माने के प्रति और चरित्र गढ़ने में दिखता है। गर्लफेंड में ईशा कोप्पिकर जबरदस्ती करती नजर आती है जबकि दोस्ताना, पेज थ्री में सहमति आधारित रिश्ते हैं। ऐसे चित्रण हमें सुझाव देते हैं कि लेस्बियन के माफिक गे ज्यादा बेहतर है। गे क्योंकि पुरुषों का पुरुषों से रिश्ता होता है जो कि पहले ही विशेषाधिकार प्राप्त और आत्मनिर्भर होते हैं इसीलिए उनको इतरलैंगिक रिश्तों में सबसे ज्यादा सम्मान की नज़र से देखा जाता है और समाज से भी उनको एक मौन सहमति मिल जाती है। लेकिन वहीं जब लेस्बियन के बारे में बात हो तो उन्हें कमतर और नीचा माना जाता है, दूसरा उनके इतरलैंगिक संबंधों को परिवार टूटने के कारण के रूप में भी लिया जाता है जैसे कि फायर में अंतत: दिखाया गया है, तो महिलाओं के महिलाओं के साथ संबंधों को अस्वीकार कर दिया जाता है। इसीलिए गर्लफ्रेंड और फायर में चित्रित हुई लेस्बियन महिलाएं या खुद में ही डर पैदा करने वाली हैं या फिर उनकी वजह से परिवार बिखरता है जबकि दोस्ताना और पेज थ्री के गे चरित्रों में कॉमिक की रचना है उनका नोर्मलाईजेशन किया गया है या फिर गे को ऐसे रिश्तों के रूप में चित्रित हैं जिनसे किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते। 

उपसंहार

इस तरह हमने देखा कि हालांकि हिंदी सिनेमा में होमोसेक्शुलिटी के प्रति इतनी लंबी चुप्पी टूटी तो है, कुछ स्वीकर्यता इन रिश्तों और लोगों के लिए बनी तो है पर इसमें भी एक कनफ्लिक्ट है। अभी तक होमोसेक्शुअल मुद्दों के प्रति सवेदनशीलता और दिली स्वीकार्यता नहीं बन पाइ है। जिसके परिणाम स्वरूप इन रिश्तों को एक तरह के सांचों में गढ़ने की कोशिश की जाती है और इससे हिंदी सिनेमा जगत का होमोसेक्शुलिटी के प्रति पितृसत्तात्मक रुख का भी पता चलता है। फिर भी इन फिल्मों ने जिस चुप्पी को तोड़ा है वह भी महत्वपूर्ण है और आगे के लिए ऐतिहासिक भूमिका अदा करेगा।





[1] Vanita Ruth And Kidawai Saleem Same-Sex love in India A literary History Penguin books, 3-35
[2] Vanita Ruth And Kidawai Saleem Same-Sex love in India A literary History Penguin books, 2014 pp 54-64
[4] गर्ल फ्रेंड रीव्यू
[6] बॉरा, ऋतुपर्णा। खुलती परतें, यौनिकता और हम। निरंतर ट्रस्ट, 2011। पृ 46।
[7] बॉरा, ऋतुपर्णा। खुलती परतें, यौनिकता और हम। निरंतर ट्रस्ट, 2011। पृ 42-60।
[8] मैरी ई जॉन, जानकी नायर। कामसूत्र से कामसूत्र तक। वाणी प्रकाशन, 2008। पृ-11।
[9] Thakur, Ratna Too hot to handle: Cultural politics of Fire Feminist review, no 64 2000
[10] Ibid


संपर्क: प्रियंका शर्मा शोधार्थी नाट्यकला विभाग पांडिचेरी विश्वविद्यालय पांडिचेरी 605014 

भक्ति आंदोलन - एक परिदृश्य

भारतीय इतिहास में सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक दृष्टी से भक्ति आंदोलन एक युगांतकारी घटना थी। जिसने भारतीय समाज एवं दर्शन को नये सिरे से परिवर्तित किया। यह वही युग था जिसके कारण तुलसीकृत रामचरितमानसप्रत्येक भारतीय का कंठहार बनी, जिसने मंदिरों की प्रार्थनाओं को सूर के पदों से सजाए। जिसने कबीर, रैदास की रचनाओं को सामान्य जन-जीवन से जोड़कर समाज के उपेक्षित वर्ग को अपनी आस्मिता का भान  कराया। जिसने चैपालों को जायसी से आख्यान दिये। एक मायने में यह एक सांस्कृतिक व सामाजिक क्रान्ति थी। जिसने संपूर्ण भारत वर्ष  को एक नये तरीके से सोचने पर विवश किया।
            भक्ति, लौकिक जगत की सर्वोच्च उत्कृष्ठ, अलौकिक भाव, वस्तु या उपलब्धि है। मानवीय सभ्यता के प्रथम एवं प्रकृति के साथ-साथ स्वयं के स्थायित्व शोध के साथ ही मानवीय जीवन में भक्ति का प्रवेश हुआ। भक्ति शब्दसंस्कृत की भज् धातु में क्तिन् प्रत्यय के संसर्ग से बना है। जिसका अर्थ है भगवान की सेवा करना।’’1  ईश्‍वर के प्रति परम अनुराग एवं नि:शेष भाव से आत्म समर्पण ही भक्ति है। भक्ति ईश्‍वर को प्राप्त करने का सहज मार्ग है। महर्षि शांडिल्य के अनुसार- ‘‘ईश्‍वर में परानुशक्ति अर्थात् अपूर्व एवं प्रवृष्ट अनुराग रखने को ही भक्ति कहते हैं’’2 यह ईश्‍वर से जुड़ने, उसे समझने एवं अपने इष्ट से एकाकार होने का साधन है। भक्ति का मार्ग श्रद्धा से प्रारंभ होकर समर्पण की ओर जाता है। नारदभक्ति सूत्र के अनुसार- भगवान के प्रति परमप्रेम ही भक्ति है।’’3 भक्ति के फलस्वरूप वह अपने को भूलकर सब के प्रति समर्पण स्थापित कर सकता है। प्राचीन मनीषियों से लेकर आधुनिक विद्वानों एवं आध्यात्मिक  गुरूओं ने भक्ति को विविध रूपों में परिभाषित किया है-
श्रीमाधवाचार्य के अनुसार- ‘‘भगवान में महात्मज्ञान पूर्वक सुदृढ़ और सतत् स्नेह ही भक्ति है। इससे अधिक मोक्ष का कोई दूसरा उपाय नहीं है। यही परमप्रेम जो पूर्णज्ञान से उत्पन्न होता है और सर्वदा विद्यमान रहता है, भक्ति कही जाती है।’’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- ‘‘श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम ही भक्ति है।’’4
 डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- ‘‘स्नेहपूर्वक ध्यान ही भक्ति है।’’5
            इस प्रकार भक्ति आत्मा एवं परमात्मा के स्नेह एवं श्रद्धायुक्त संबंधों का नाम है। भक्ति अलौकिक आनंद का चिर स्त्रोत एवं आत्मिक उन्नति का साधन है। भक्ति का स्वरूप बहुआयामी है जो श्रद्धा, आनंदा और मोक्ष की आकांक्षा, विरक्ति कला एवं विज्ञान के विविध रूपों से निर्मित है। लाक्षणिक रूप में भक्ति दो प्रकार की मानी जाती है- वैधी भक्ति एवं रागत्मिका भक्ति । वैधी भक्ति में पांच अंग स्वीकार किये गये हैं, यथा- उपास्य, उपासक, उपासना, अर्चना और मंत्रजाप। भगवच्चरणरविदों में नैसर्गिक भावानुसार उत्पन्न प्रेम से जो भक्ति होती है उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। प्रेमभक्ति को सरल, सत्य एवं साधारण पात्र के लिए भी ग्रह बनाता है। ‘‘भक्ति में प्रेम का प्राधान्य होने पर भक्ति के अन्य उपर्युक्त सभी रूप गौण हो जाते हैं।’’6  वेदों में इन्द्र, मिश्र, वरूण, अग्नि के रूप में एक ही परमात्मा के विविध गुणों के आधार पर अनेक रूपों की चर्चा की गई है । जिसमें मानव एवं देवताओं के मध्य प्रेम, भक्ति और मित्रता की कल्पना की गई है। वेदों के पश्चात् अन्य ग्रंथों एवं आध्यात्मिक रचनाओं में भक्ति का स्वरूप एवं क्षेत्र व्यापक होता चला गया ।
            गीता में भक्त, भगवान और भक्ति के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या है। गीता में प्रबल मार्ग को ही भक्ति कहा गया है। गीता ज्ञानमार्ग एवं भक्तिमार्ग में विरोध नहीं देखती। अव्यक्तोपासना (ज्ञानमार्ग) और व्यक्तोपासना (भक्तिमार्ग) वास्तव में एक ही लक्ष्य तक जाने के दो मार्ग हैं।
            श्रीमदभागवत में नौ प्रकार की भक्ति की चर्चा की गई है। यथा-
               “श्रवण कीर्तन विल्णो, स्मरणः पाद सेवनम्
                अर्चनं वन्दन दारूत सख्यभात्भनिवेदनम्
                 गुण महाक्याक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति
स्मरणासक्ति दास्यासक्ति पूजासक्ति
स्मरणासक्ति दास्यासक्ति, तन्मयतोसक्ति
परमविरहासक्ति रूपाएकधा दषधासक्ति8
भक्ति आंदोलन में अनेक धर्माचार्यों ने विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों का प्रवर्तन किया। जिनमें भक्ति के अनेक स्वरूपों के दर्शन होते हैं। भक्ति के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले प्रमुख सम्प्रदाय जैसे - अद्वैतसम्प्रदाय, श्री सम्प्रदाय, ब्रह्मसम्प्रदाय, बल्लभसम्प्रदाय, हँससम्प्रदाय, गौड़ीयसम्प्रदाय, भेदाभेद दार्शनिक मत पर आधारित हैं। उक्त मतानुसार भगवान कृष्ण ही विभिन्न रूपों में अवतीर्ण हुए हैं। अन्य प्रमुख सम्प्रदाय भी हैं, जो भक्ति को अधिक महत्ता प्रदान करते हैं। रूप्रसम्प्रदाय (विष्णुस्वामी), सखी सम्प्रदाय (हरिदास), राधावल्लभ सम्प्रदाय (गोस्वामी), रसिकसम्प्रदाय (अग्रदास), उद्धतिसम्प्रदाय (स्वामीसहजानंद), तत्सुखी सम्प्रदाय (जीवाराम) आदि। उक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप इन्द्रधनुषीय है। विभिन्न धर्माचार्यों, संतों एवं विद्वानों ने इसे विविध रूप में अभिव्यक्त किया है। भक्तिकाल के उद्भव को हिन्दुस्तान में मुसलमानों के वर्चस्व से सीधे तौर पर जोड़ना अर्धसत्य है। क्योंकि मुसलमानों के आक्रमणों से अप्रभावित दक्षिण भारत में भक्तिधारा अपने पूर्ण वेग में प्रवाहित हो रही थी। जहाँ आलवार संत भक्ति सरिता के मूल प्रेरणा बने। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- मुलसमानों के आने के पश्‍चात् भारतीय सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था कर्मकाण्ड ऊँच-नीच जातिवाद की संकीर्णताओं से घिर गई। तात्कालीन सामाजिक व्यवस्था में निम्न जातियों के पास अपनी अस्मिता को बनाये रखने के लिए नाथों और सिद्धों के पास जाने के अलावा दूसरा कोई मार्ग शेष न रहा। उच्च वर्ग प्रायः इनके प्रभाव से मुक्त रहा। इस धार्मिक उथल-पुथल के बीच भक्त या संतों का एक ऐसा समूह भी खड़ा हो रहा था, जो बिगड़ते सामाजिक धार्मिक स्थितियों को सामान्य करने में लगा हुआ था। प्रेमस्वरूप ईश्‍वर की भक्‍ति सामने लाकर भक्त कवियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को मनुष्य के सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्‍यों को हटाकर उन्हें पीछे कर दिया। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भक्ति आंदोलन का मूल स्त्रोत दक्षिण से प्रस्फुटित होता है। जहाँ बौद्धों एवं जैनों का विरोध करने के लिए नायनयारों तथा आलवारों ने मिलकर एक धार्मिक आंदोलन प्रारंभ किया
श्रीमद्भागवत माहावूय में उपलब्ध अनेक श्लोक व पंक्तियाँ भक्तिकाल के उद्भव को निर्धारित करती है।
उत्पना द्रविणे सांह वृद्धिं कर्णाटके गता
क्वचित्क्य चिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता9
अर्थात् भक्ति का उदय द्रविड़ प्रदेश से हुआ जिसे रामानंद उत्तर भारत में लेकर आये और उसे कबीरदास द्वारा प्रसारित किया गया। अतः हिन्दी साहित्य जगत में भक्ति आंदोलन का उद्भव आलवार भक्तों की परम्परा से हुआ है। भक्ति आंदोलन भारतीय इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्यिक धार्मिक घटना थी। जिसने संपूर्ण देश को भक्ति सूत्र में बांधने का कार्य किया। अतः भक्ति आंदोलन ने भारत के समस्त क्षेत्रों-प्रांतों में दार्शनिक मतों, साहित्यिक विचारधाराओं, सामाजिक व्यवस्थाओं को नये सिरे से संवारने एवं व्यक्त करने का कार्य किया। भक्ति आंदोलन धार्मिकता के आवरण में संपूर्ण भारतवर्ष के साधारण व्यक्तियों की व्यथा-कथा का आंदोलन बनकर उभरा। दक्षिण भारत में रामानुज ने इसकी नींव रखी तो उत्तर-भारत में उनके शिष्य रामानंद भक्ति आंदोलन के पुरोधा बने। भक्ति की यह अनवरत धारा गुजरात, पूर्वभारत, मध्यभारत सहित भारत के समस्त भागों में समान रूप से प्रवाहित हुई।
            महाराष्ट्र ने संत नामदेव एवं ज्ञानदेव ने भगवद् भक्ति का प्रचार किया। इन्होंने अपनी रचनाओं में मराठी के साथ-साथ हिन्दी भाषा को भी अपनाया। इनकी रचनाओं में सगुण एवं निर्गुण दोनों भक्तिरूप दृष्टिगोचर होते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में -नामदेव सीधे-सादे सगुण भक्तिमार्ग पर चले जा रहे थे पर पीछे उस नाथपंथ के प्रभाव के भीतर भी ये लाए गये जो अंतर्मुखी साधना द्वारा सर्व व्यापक निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार को ही मोक्ष का मार्ग मानता था।10 
            भक्ति की अलौकिक सरिता ने संपूर्ण देश को भक्तिभाव से सिचिंत किया। किन्हीं क्षेत्रों में साकार ब्रह्म की उपासना का प्रभाव अधिक रहा तो किन्हीं क्षेत्रों में निराकार ब्रह्म को अपनाया गया। निर्गुण धारा की पहली शाखा संतकाव्य या ज्ञानमार्गी के नाम से जानी जाती है जिन्होंने साधारण और अव्यवस्थित भाषा में धर्म एवं समाज सुधारक के संदर्भ में काव्य रचना की। इसकी दूसरी शाखा सूफी काव्यधारा जिसे प्रेममार्गी, प्रेमाश्रयी, प्रेमाख्यानक, काव्यपरम्परा एवं रोमांसिक कथा काव्य परम्परा आदि नामों से भी जाना जाता है। भक्तिकाल की दूसरी प्रमुख धारा सगुण भक्तिधारा है जो कृष्णभक्ति काव्य एवं राम भक्तिकाव्य दो शाखाओं में विभक्त है। सगुणभक्ति धारा की दूसरी शाखा है- राम भक्तिशाखा। वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में रचित रामायण को रामकथा का मूल स्त्रोत स्वीकार किया जाता है।
            इस प्रकार भक्ति आंदोलन में संतकाव्य, सूफीकाव्य, कृष्णभक्ति तथा रामभक्ति काव्य के रूप में दक्षिण से उत्तर तथा पूर्व से पश्‍चिम तक संपूर्ण देश को भक्ति की अविरल धारा से सराबोर कर दिया। परिणामस्वरूप भारत का कोना-कोना भक्तिमय हो उठा।

संदर्भ ग्रंथ सूची :
1.          डॉ. मुंशीराम शर्मा - भक्ति का विकास, चौखम्बा      विद्या भवन वाराणसी, 1979, पृ. 64
2.          पाणिनी अष्टाध्यायी 3/3/94
3.          नारदभक्तिसूत्र-2
4.          आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - चिंतामणि भाग-1,पृ. 32
5.          डॉ. नगेन्द्र - हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपर बैक्स, नोएडा, 2012, पृ.107
6.          श्री चैतन्यमहाप्रभु- प्रेमापुपर्थी महान
7.          बालगंगाधरतिलक-गीतारहस्य, पृ. 433
8.          कृष्णदास भारद्वाज- वेदों में नवधाभक्तिपृ. 31
9.          श्रीमद्भागवत महात्म्य, अध्याय-1 श्लोक 48
10.        आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - हिन्दी साहित्य का इतिहास, देवनगर प्रकाशन, 2009, पृ. 94-95


संपर्क : भारती कोरी, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.) 470003 01071986bharti@gmail.com 

यह खेल खत्म करों कश्तियाँ बदलने का (आदिवासी विमर्श सपने संघर्ष और वर्तमान समय)

“सियाह रात नहीं लेती नाम ढ़लने का यही वो वक्त है सूरज तेरे निकलने का कहीं न सबको संमदर बहाकर ले जाए ये खेल खत्म करो कश्तियाँ बदलने...